*(धन/पैसा/रुपया) क्यों नहीं आ रहा है? ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र〰️〰️🔸 94150 87711〰️〰️🔸 92 357 22996〰️〰️🔸〰️〰️ पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कुपूत तो क्यों धन संचय? बड़े-बुजुर्गो के मुंह से आपने भी यह कहावत कई बार सुनी होगी। यहाँ जाने अनजाने माँ सरस्वती की महत्ता को ही बताया गया है। किन्तु वर्तमान समय में स्थिति भिन्न है। पूत सुपूत है तो भी धन संचय और पूत कुपूत है। तब तो जरूर धन संचय। आज के युग में धन अर्थात लक्ष्मी जी का बड़ा बोल बाला है। पूत सुपूत निकला तो कल डॉक्टर, इंजीनियर ,वकील बनाने के लिए किसी बड़े कॉलेज में दाखिला दिलाना होगा। जरुरत धन की पड़ेगी औलाद निकम्मी निकली तो कल पता नही कितनी दफा जमानत आदि देनी पड़े उसके लिए काम धंधा जोड़ना पड़े ? जो कुपूत खुद के लिए कुछ नहीं कर सकता वो बूड़े माता-पिता के लिए तो भला क्या करेगा ? ऐसे में स्वयं को वृद्धास्था में दुसरो पर आश्रित न रहे उसके लिए भी धन ही चाहिए। जरूरत फिर से धन की ही पड़ने वाली है। अर्थात बिना लक्ष्मी जी की शरण में जाए गुजरा नही होगा। ज्योतिषीय दृष्टि से कहने का प्रयास करें तो स्थिर संपत्ति ही भविष्य की आस बनती दिखाई देती है। किन्तु यहाँ विडम्बना ये है की शास्त्रों में तो लक्ष्मी जी को सदा चलायमान कहा गया है। फिर भला ये स्थिर होकर शुभ फल कैसे दे सकती हैं? जन्म कुंडली मे अचल संपत्ति अर्थात कुंडली के स्थिर भावों को देखने का प्रयास करें। स्थिर भाव लग्न से गिनते हुए चार मिलते हैं। धन भाव ,पंचम भाव, अष्ठम भाव,व आय भाव। पंचम भाव जैसा की जग जाहिर है। मुख्य रूप से विद्या का भाव है। कभी आपने ध्यान दिया की पंचम भावाधिपति और आयेश (लाभेश) में सदा नैसर्गिक शत्रुता होती है। अर्थात सामान्य रूप से सदा ये एक दुसरे के विरोधाभासी होते हैं। अतः यदि आप शिक्षा का अर्थ धन प्राप्त करना ही मानते हैं तो शायद आप भ्रम में रह रहे हैं , पंचमेश आयेश का सहायक नहीं होगा, वही दूसरी ओर इन के कारक आपस में सहायक होते हैं, यदि पंचम में अग्नि प्रधान राशि होती है तो एकादश में वायु कारक राशि होगी, एकादश में जलीय राशि होगी तो पंचम में पृथ्वी तत्व राशि होगी इस प्रकार ये भाव के रूप में एक दूजे के सहायक हो सकते हैं। इन में सम्बन्ध भी क्षत्रिय-शुद्र, व वैश्य-ब्राह्मण के रूप ही होता है, अर्थात सर्वथा विपरीत। अष्ठम भाव गुप्त धन का भी माना गया है अब ध्यान दें की द्वितीय व अष्ठम भावाधिपति सदा शत्रु होते हैं, संकेत यह मिलता है की यदि आप पैतृक धन सम्पदा में से कुछ भी गुप्त रूप से अपने लिए निकालने की लालसा रखते हैं तो सचेत रहें, ऐसा धन आपको शुभ फलदायक नहीं हो सकता खेतों में मिलने वाला दबा हुआ धन, दीवारों में छिपाया गया धन सब इसी प्रकार का धन होता है जो अपनों से दगा करके रखा जाता है और अंत में स्वयं के भी काम नहीं आता, अन्य लोग उसका लाभ उठाते हैं। तो क्या धन के रूप में मनुष्य को चल संपत्ति की लालसा रखनी चाहिए कुंडली में चर भावों की बात करें तो चारों केंद्र चर होते हैं, इनमे सुखेश व दशमेश के बीच कभी भी मित्रता नहीं होती, अब आप अपने सत्ता अधिकार, कार्यक्षेत्र (दशम) के द्वारा अपने लिए वास्तविक सुख पा लेंगे इसमें मुझे सदा ही संशय है। जैसा आप सभी को ज्ञात है कि सप्तम भाव विवाह व साझेदारी का भाव है। बड़ी रोचक बात है की सप्तमेश व नवमेश भी कभी नैसर्गिक मित्र नहीं होते, अब भला क्या हो? जरा गौर करें, पंचम त्रिकोण व नवम त्रिकोण के स्वामी सदा मित्र होते हैं। पंचम भाव, नवम भाग्य भाव से नवम, यानि भाग्य है। अर्थात यदि सरस्वती (पंचम) की उपासना की जाय तो भाग्य (नवम) का साथ स्वयमेव मिलता है। सरस्वती की उपासना का अर्थ मात्र शिक्षा से न होकर विधि पूर्वक व धर्मपूर्वक शास्त्रसम्मत आचरण करना, गुरुओं का सम्मान, वाणी पर नियंत्रण, आचरण की शुद्धता आदि से है। इन नियमो का पालन भाग्य को जागृत करने में कोई नही रोक सकता इसमे कोई संशय नही। इसी प्रकार पराक्रम भाव (तृतीय) व इसके बिलकुल सामने पड़ने वाला आय भाव (एकादश) सदा मित्र राशि होते हैं। अतः यदि आप पराक्रम करते हैं, तो आय स्वयं ही होने लगती है। आय भाव स्वयं पराक्रम से नवम अर्थात भाग्य होता है तथा पराक्रम सप्तम भाव से नवम भाव है अब इस त्रिकोण में आपका जीवन साथी भी सम्मलित हो जाता है तभी यह त्रिकोण पूरा होता है। जिनके घर की लक्ष्मी खुश उनकी धन लक्ष्मी मेहरबान नवम भाव धर्म का भाव है, तात्पर्य यह की शिक्षा को धर्म मानकर ग्रहण करें व आय प्राप्ति के लिए भी धर्मपूर्वक आचरण कर पराक्रम करें, ग्रहों में कितनी भी प्रतिकूलता क्यों न हो सब अपने आप व्यवस्थित होने लगेगा। लक्ष्मी स्वयं उनके द्वार पर दस्तक देती है जहाँ सरस्वती की उपासना होती है। जो लोग पराक्रम को धर्म मानते है भाग्य उनका दामन सदा भरपूर रखता है।