बिना तिलक के द्विज अशुभ होता है ?
ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र 94150 877 11 astroexpertsolutions.com
मलूक पीठाधीश्वर पूज्य राजेन्द्रदास जी महाराज ने शास्त्रोक्त प्रमाण देकर एक पुस्तक में लिखा है कि यदि किसी द्विज का मुख बिना तिलक के कोई देख ले तो उसे भी पाप लगता है, इसलिए द्विज को चाहिए कि स्नान करने के बाद तुरंत जल से तिलक लगा ले ताकि जब तक चंदनादि से तिलक लगाए तब तक उसका मुख देखनेवाले को दोष न लगे।
कभी नंगे सिर तिलक नहीं लगवाते। यदि सिर पर वस्त्र न हो तो अपना दाहिना हाथ ही रख लेना चाहिए। सोते समय रात में तिलक मिटा देना चाहिए ।
तिलक लगाने के भी कई मन्त्र हैं। जैसे--
आदित्याः वसवो रुद्राः विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
तिलकं तु प्रयच्छामि धर्मकामार्थसिद्धये।।
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्य पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
आदि और भी अनेकानेक मन्त्र हैं जिनके अर्थ से ही तिलक की महत्ता सिद्ध हो जाती है।
जबकि कुछ विधर्मी कुतर्क देने लगते हैं कि तिलक लगाकर तो हम आनेवाली ऊर्जा और प्रकाश को अवरुद्ध कर देते हैं जो
भ्रुवोर्मध्ये
(गीता सुरत योग अध्याय 6) होकर साधक के अंदर प्रविष्ट करती है।उनका उद्देश्य केवल यही होता है कि इस प्रकार के अविचारितरमणीय परोसकर हम तिलक लगाना छोड़ दें।पहले हम अपने मानबिंदुओं को छोड़े ताकि फिर वे अपनी बात मनवा सकें ।
शायद उन्हे पता नहीं है कि प्रकाश और ऊर्जा का मार्ग भला कोई अवरुद्ध कर सकता है। अकबर ने तो तवे डलवाकर ज्वालादेवी की ज्योति को रोकने का असफल प्रयास किया था। टार्च के सामने यदि आप हथेली कर देंगे तो वह किरणें अगल-बगल से निकलेंगी। इसलिए हमें अपने संस्कृति से विमुख नहीं होना चाहिए। हमारा तो कहना है कि तिलक ऊर्जाग्रहण में व्यवधायक नहीं प्रत्युत सहायक है।यह तो विद्युत के लिए ताम्रवत् सुचालक का काम करता है,
जब पूरे पेट का अल्ट्रासाउंड कराते हैं, तब पेट के ऊपर लगाया जानेवाला लेप क्या किरणों को अंदर जाने से रोकता है कि उसमें और अधिक पारदप्शिता और सुगमता तथा स्पष्टता आती है ।ऐसे ही शीतल सुगंधित चन्दन भी रश्म्यावशोषक है रश्म्यावरोधक नहीं।
बृहस्पति की अनुकूलता के लिए केशर का तिलक लगाना चाहिए। बृहस्पति विवेक, धन, धर्मादि अनेक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्यों का कारक होता है।
शैव लोग भगवान् विष्णु के धनुष का प्रतीक त्रिपुण्ड लगाते हैं, और वैष्णव शिवजी के त्रिशूल का प्रतीक सीधा खड़ा तिलक लगाते हैं क्योंकि शिवजी श्रीरामजी को और श्रीरामजी (विष्णु) शिवजी का स्मरण करते रहते हैं।
सन्यासियों को श्वेत वस्त्र धारण करने का निषेध है, इसलिए वे कभी सफेद खड़िया के रंग जैसा चंदन कभी नहीं लगाते।वैष्णव संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तो वे श्वेत चंदन लगाते हैं।
गोपीचन्दन पीला व सफेद दोनों ही प्रकार का आता है।इस चन्दन को खरी भी कहते हैं ।दोहावली में रत्नावली द्वारा तुलसीदास जी के प्रति कथन में झोली के लिए खरिया और चंदन के लिए 'खरी शब्द' का प्रयोग किया गया है--
खरिया खरी कपूर सब, उचित न पिय तिय त्याग।
कै खरिया मोहि मेलि कै, कै बिमल बिबेक बिराग।।
(तुलसीप्रणीत दोहावली)
चन्दन शीतल होता है, जो मस्तिष्क को शीतल रखता है।दिमाग सदैव ठण्डा रहना चाहिए। शायद इसलिए कहा जाता है कि थोड़ा ठण्डे दिमाग से सोचो।
चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमा।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसङ्गतिः।।
वैष्णवों में भी वैरागियों का चौड़ा तिलक और किसी का पतला या किंचित् आकृति भेद तद्तद् संप्रदाय भेद के अनुसार होता है।इसी प्रकार कोई चवन्नी भर की और कोई अठन्नी भर की बिंदी लगाता है। कोई रोली की लाल बिंदी कोई रोली को ऊपर की ओर लंबाई में लगाता है। कोई तिलक के किनारों पर तो कोई मध्य में लगाता है। मतलब अनेक प्रकार के तिलक उनके अपने-अपने संप्रदाय भेद के अनुसार ही होते हैं।
यह आवश्यक नहीं कि तिलक कोई अन्य व्यक्ति के द्वारा ही लगाया जाए स्वयं न लगाएँ बल्कि वह श्लोक मुझे नहीं याद आ रहा है जिसका यह अर्थ लोग लगाते हैं। वहाँ उसका यह निहितार्थ है कि केवल अपने लिए ही चन्दन घिसना या चन्दन लेपादि न लगाएँ। सीधी-सी बात है, हमें भगवान् के लिए चन्दन तैय्यार करना चाहिए और भगवान् को समर्पित करके उनको और अपने से श्रेष्ठ को उनके सम्मान में तिलक लगाकर प्रसाद स्वरूप अपने हाथ से भी स्वयं अपने तिलक लगाया जा सकता है। यदि हम भगवान् को पहले तिलक न करके केवल अपने ही सजावट के लिए लगाते हैं तो वह ढोंग है। जब जलादि का भी तिलक लगाते हैं तो सूर्यादि देवताओं के लिए बाईं हथेली पर से दाहिने हाथ की अनामिका ,मध्यमा व अंगुष्ठ के द्वारा जल स्पर्श करके उनकी ओर छिड़क देते हैं। यानी जैसे केवल अपने लिए ही भोजन बनाना अनुचित है, उसी प्रकार केवल अपने लिए ही चन्दन तैय्यार करना उचित नहीं। यदि यह अर्थ लेंगे कि केवल किसी दूसरे से ही तिलक लगवावें नहीं तो अपने हाथ से लगाने पर हम ढोंगी कहे जाएँगे तब तो तिलक लगाने वालों में अर्द्धाधिक लोग बिना तिलक लगाए ही रह जाएँगे दूसरों की बाट जोहेंगे।
अतः -तुमहि निबेदित भोजन करहीं।
प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
जब हम मस्तक और कर्णादि में प्रभु प्रसाद चन्दन लगाते हैं, तब मानों हम वहाँ पर भगवान् का पहरा बिठा देते हैं कि हमारे दिमाग के अन्दर कुबिचार न प्रवेश करने पाएँ क्योंकि पहले विचार सूक्ष्म रूप से अन्दर प्रविष्ट करते हैं तत्पश्चात वह कार्य रूप में परिणत होकर कर्म बनते हैं।अतः पहले से ही फिल्टर लगा है।
मे मनः शिव संकल्पमस्तु।
(वेद)
कानों में अश्रवणीय न सुने। जब सुने तो सद् चर्चा ।पिशुनका (चुगली) परनिन्दा आदि नहीं। इसलिए दोनों कानों में भगवान् का प्रसाद चन्दन लगाते हैं--
परनन्दा सम अघ न गरीशा।
अघ कि पिशुनता सम कोउ आना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे।
तिनके हिय तुमको गृह रूरे।।
भद्रं श्रृणुयाम।
(वेद) अर्थात् हम कल्याणकारी ही सुनें।
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।
हम अपने भुजगंडों में भी चन्दन लगाते हैं, ताकि भगवत् प्रसाद से हमारे इन हाथों से सत्कर्म होते रहें।
कर नित करहिं राम पद पूजा।
राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा।।
(दृष्टव्य रा.च.मा. 2/129)
यदि केवल दूसरे के हाथों तिलक लगवाना ही विहित है, तो दूसरा केवल मस्तक पर तिलक लगा देगा। कोई दूसरे के पूरे शरीर पर तो चन्दन नहीं लगाता।
इसे संक्षेप में नीतिशतककार भर्तृहरि के शब्दों में हम इस प्रकार कह सकते हैं--
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्लेन,
दानेन पाणिर्नतु कङ्कणेन।
बिभाति कायः करुणापराणां,परोपकारैर्नतु चन्दनेन।।
यहाँ चन्दन की निन्दा नहीं प्रत्युत चन्दन लगाने की सार्थकता का ब्याज स्तुति से वर्णन किया गया है।
श्रीरामजी ने तुलसीदास जी को तिलक लगाया--
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसत तिलक देत रघुबीर।।
वशिष्ठमुनि ने भगवान् श्रीरामचन्द्र जी का राजतिलक सबसे पहले किया--
प्रथम तिलक बशिष्ठ मुनि कीन्हा।
पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।
विभीषण को भी
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
(रा.च.मा.5/49/10)
मानस में अनेक स्थलों पर तिलक और राजतिलक का उल्लेख हुआ है।
आचार्य मम्मट के काव्यप्रकाश में तो प्रोषितपतिका नायिका जो कि पश्चात् खण्डिता नायिका के रूप में आती है, वहाँ पर स्तन तट तक में चन्दन लगाने का उल्लेख है--
निश्शेषच्युत चन्दनं स्तनतटं निर्मृष्ट रागोsधरो।
नेत्रेदूरमनञ्जने कृतधिया तन्वी तवेयं तनुः।।
वापीं स्नातुमितोगतासि किंवा तस्याधमस्यान्तिकम्।।
कारण चन्दन की शीतलता ही है ।तभी तो--
जौं रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत भुजंग।
चन्दन बिष ब्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।।
अब जरा सोचिए इतने बहु उपयोगी चन्दन को न लगाना अपने तन, मन व धर्मादि के प्रति कितना अन्याय है।
लाल रोली शक्ति का प्रतीक सभी बीच में लगाते हैं क्योंकि शक्ति और शक्तिमान में अभेद है, जैसे आग और आग की दाहकता और उसकी प्रकाशिका शक्ति को उससे पृथक् नहीं कर सकते हैं, वैसे ही शक्ति और शक्तिमान् संपृक्त हैं--
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
(कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्यम्)
गिरा अरथ जल बीति सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीताराम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।
(रामचरितमानस)
यदि अग्नि की दाहकता और प्रकाशकता उसमें न हो तो वह आग आग नहीं है, वह राख या कुछ और है ।इसलिए रोली मध्य में अवश्य लगाते हैं।
इसके अलावा लाल रोली लाल मंगलग्रह की भी अनुकूलता देती है, जिसे नवग्रमण्डल में सेनापति का भी स्थान प्राप्त है, तथा साहस का देवता है। आदि आदि।
मंगल ग्रह को वैज्ञानिक भी रक्तवर्णी मानते हैं।हम तो नवग्रह स्थापन में युगों से उसे लाल रंग का बनाकर स्थापित करते चले आए हैं।अँग्रेजों का भी युद्ध का देवता 'मार्स' है। जिसके नाम पर उन्होंने अपने एक महीने का ही नाम रख दिया *'मार्च'*।
नेपाल में विभिन्न अवसरों पर दही, हल्दी, अक्षतादि से टीका करने की परंपरा अद्यावधिपर्यन्त अक्षुण्ण है। विवाह के पूर्व तिलक चढ़ाया जाता है ।
बहुत अधिक क्या लिखूँ निष्कर्ष स्वरूप हमें ऐसे औषधीय गुणों से युक्त व धर्मशास्त्रसम्मत चन्दनादि (अष्टगन्ध) को भगवान् को समर्पित करके नित्यप्रति स्नानोपरान्त तिलक अवश्य लगाना चाहिए किसी के अनर्गल प्रलाप से शास्त्रविरुद्ध अधर्माचरण करके अपनी संस्कृति नहीं छोड़नी चाहिए ।
रक्षाबन्धन और भ्रातृ द्वितीया में भी बहिनें अपने भाई का रोचना (तिलक) करती हैं।
गोरोचनालक्तक कुङ्कुमेन सिंदूरकर्पूरमधुत्रयेण।
(दुर्गासप्तशती)
एतावता सर्वत्र तिलक की महत्ता है।
तिलकं धर्मरक्षणम्।
"सर्वे भवन्तु सुखिनः।
आज भी दाक्षिणात्य ब्राह्मण तिलकादि धारण करने में संकोच नहीं करते किंतु उत्तर भारत में कतिपय लोग इसे निम्नस्तरीय समझते हैं। ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र सिद्धिविनायक ज्योतिष एवं वास्तु अनुसंधान केंद्र विभव खंड टू गोमती नगर एवं वेद राज कांप्लेक्स पुराना आरटीओ चौराहा लाटूश रोड लखनऊ 94150 87711 92357 22996
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