* संकट मोचन हनुमान जी महाराज बाबा नीमकरोरी जी महाराज की जय हो क्षमा मिली इंद्रदेव को वरदान मिले हनुमान को* (श्रीराम भक्ति की साधना) ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र 94150 87711 हिमालय का यह दिव्य क्षेत्र आज दिव्यतम हो गया था। त्रिलोक की समस्त दिव्यशक्तियाँ, देवशक्तियाँ यहाँ पहुँच चुकी थीं। पवनदेव के सूक्ष्म संकेतों को अनुभव कर वानरराज केसरी व देवी अंजनी पहले ही आ चुके थे। वैसे भी अंजनी के प्राण तो सदा अपने लाल में बसते थे। प्रिय पुत्र पर कोई संकट आए और जननी का हृदय आंदोलित-आलोड़ित न हो, भला यह कैसे संभव था! देवी अंजनी ने वज्राघात के क्षण ही जान लिया था कि उनके पुत्र हनुमान किसी संकट से घिर गए हैं। उन्होंने बार-बार वानरराज केसरी से कहा-"हनुमान का पता लगाओ, ढूँढो कि वह कहाँ है?" और तभी पवनदेव का सूक्ष्म संकेत उनकी चेतना में स्फुरित हुआ। बस, संकेत मिलते ही पल की देर लगाए बिना वे दोनों वहाँ पहुँच गए, जहाँ पर पवनदेव हनुमान को गोद में लिए बैठे थे। हनुमान की स्थिति देख पल के लिए उनका मातृहृदय विचलित हुआ, परंतु तुरंत ही उन्होंने स्वयं को सँभाल लिया; क्योंकि उन्हें विश्वास था कि भगवान सदाशिव के वरदान से जन्मे हनुमान का अहित कोई कर ही नहीं सकता। उनकी अंतश्चेतना में यह सत्य भी अंकुरित हुआ कि रामकाज के लिए जन्मे हनुमान भला अपने प्रभु का काम किए बिना कैसे देह छोड़ सकते हैं! उन्होंने यह भी सोचा कि जिसके रोम-रोम में राम रमते हों, उन अपने प्रिय भक्त हनुमान की सुधि श्रीराम कभी भूल नहीं सकते हैं। भले ही वे इस समय मानव लीला कर रहे हों, भले ही वे पुराणपुरुषोत्तम मानव मर्यादाओं को निभा रहे हों, परंतु भक्तवत्सल भगवान की भावचेतना तो कभी मर्यादाओं में नहीं बँधती। अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक प्रभु अपने भक्त की रक्षा करने में किन्हीं मर्यादाओं को कभी भी बाधा न बनने देंगे। अपनी इस सकारात्मक उज्ज्वल सोच के कारण देवी अंजनी संपूर्णतया आश्वस्त थीं, विश्वस्त थीं। इतना ही वे वानरराज केसरी को भी आश्वस्त कर रही थीं। पवनदेव को भी उनकी वाणी संतोष दे रही थी। फिर भी वानरराज केसरी एवं पवनदेव को कहीं अंतर्मन में चिंता थी, जबकि अंजनी को अवढरदानी महादेव एवं पूर्णब्रह्म पुराण पुरुषोत्तम श्रीराम में संपूर्ण विश्वास था। विश्वास एवं चिंता के इन मिले-जुले स्पंदनों के साथ सबसे पहले प्रथमपूज्य श्री महागणपति गणेश जी पधारे। उनके कुछ ही क्षणों के पश्चात देवसेनानायक कार्तिकेय भी आ गए। इसी के साथ हिमालय के समस्त ऋषिगण एवं देवलोक के देवगण भी आ गए। प्रतीक्षा थी तो बस त्रिदेवों की-त्रिशक्तियों की। इनमें से सबसे पहले ब्रह्मदेव पधारे। उनके साथ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं इंद्रादि देवगण थे।माता सरस्वती भी साथ पधारी थीं। इसके बाद भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ आए। उनके साथ पक्षिराज गरुड़ एवं शेषनाग भी आए थे। अंत में अधरों पर मधुर मुस्कान लिए चंद्रमौलि महादेव महादुर्गा देवी पार्वती के साथ पधारे। उनके साथ प्रमथगणों का संपूर्ण समूह था। भगवान चंद्रमौलि के पहुँचते ही शेषशायी नारायण ने परमस्नेह से देखा और दोनों ने ही एकदूसरे को प्रणाम किया। ब्रह्मदेव भी शिव एवं नारायण से संपूर्ण प्रगाढ़ता से मिले। इन तीनों के ही समक्ष इंद्र लज्जित एवं किंचित् भयभीत थे। उन्हें अभी भी पार्वती के कोप का भय था। भगवान शिव के समस्त गणों के अध्यक्ष गणेश ने सभी की मनोदशा निहारी एवं माता से कुछ कहा। गणपति से सांकेतिक सहमति जताते हुए भगवती उमा ने महादेव की ओर निहारा। शिव शक्ति का संकेत समझ गए। उन्होंने मंद, मधुर किंतु दृढ़ स्वर में कहा-"देवराज इंद्र ने हनुमान पर वज्राघात करके अक्षम्य अपराध किया है। यद्यपि वे दंड के भागी हैं, फिर भी ब्रह्मदेव की संस्तुति से उन्हें क्षमा किया जाता है, लेकिन यह तभी संभव है, जब कि इंद्र अपने कर्म का प्रायश्चित करें।" इतना कहकर महादेव ने हँसकर कहा-"इंद्र के प्रायश्चित के साथ हममें से हर एक को कुछ न कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे कि हम सबका यहाँ आना सार्थक हो।""ऐसा क्या करें हम सब?" प्रश्न अग्नि एवं वरुण ने लगभग एक साथ किया। उत्तर में देवी पार्वती बोलीं- "आप सब मेरे प्रिय हनुमान को अपनी सामर्थ्य के अनुसार वरदान, आशीष एवं सहयोग का वचन दें।" हनुमान की माता अंजनी जगज्जननी माता पार्वती के इस उमड़ते वात्सल्य पर विभोर हो गईं। उन्होंने विनत भाव से हाथ जोड़कर जगन्माता को प्रणाम किया। उत्तर में पार्वती उन पर स्नेह दृष्टि डालते हुए हँस दीं। इधर सब देवगण प्रसन्न होते हुए बोले-"भगवती ! हमें आपका आदेश स्वीकार है। देवों की इस स्वीकारोक्ति पर महादेव भी हर्षित हो गए। उन्होंने अपनी अमृतवर्षिणी अमोघ दृष्टि हनुमान पर डाली। महाकाल के इस दृष्टि निक्षेप मात्र से हनुमान की मूर्च्छा टूट गई। अब वह पहले से भी अधिक स्वस्थ एवं चैतन्य थे। हनुमान को स्वस्थ एवं संपूर्ण प्रसन्न देखकर सब ओर हर्ष का ज्वार उमड़ पड़ा। सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव ने इसे देखा और प्रसन्न होते हुए कहा-"अब तो पवनदेव को भी अपना कर्तव्य प्रारंभ कर देना चाहिए।" ब्रह्मा के इस कथन पर थोड़ा संकुचित होते हुए पवनदेव ने कहा-"जो आज्ञा परमपिता!" पवनदेव के इस कथन के साथ सृष्टि में प्राण प्रवाह पुनः प्रवाहित होने लगे। सभी के मुरझा रहे प्राण फिर से खिल उठे। जीवों को जीवन मिला। भगवान सूर्यदेव भी ग्रहणमुक्त हो पुनः प्रकाशित हो गए। सृष्टि के समस्त कार्य की राहुबाधा समाप्त हो गई, अवरोधमुक्त हो सृष्टि की सृजन संवेदना फिर से क्रियाशील हो गई, परंतु देवी पार्वती की आँखों में अभी भी प्रतीक्षा थी। उनके इस नेत्र संकेत को सबसे पहले उनके गणेश ने समझा । उन गणाध्यक्ष ने माता से कहा-"माता! मैं आपके आशीष से सभी देवों में प्रथम पूज्य हूँ। इसलिए सबसे पहले मैं ही हनुमान को वरदान प्रदान करता हूँ- हनुमान मेरी ही तरह सदा-सर्वदा आपको प्रिय रहेंगे। मेरी ही भाँति वे संकटमोचन एवं विघ्नविनाशक होंगे। उनका स्मरण करके सृष्टि के सभी प्राणियों के संकट दूर होंगे, मेरी ही भाँति वे भी सिद्धि-बुद्धि प्रदाता होंगे।" गजमुख के इस वरदान को सुनकर भगवती उमा प्रसन्न हो गईं। उनके पुत्र कार्तिकेय ने उनकी इस प्रसन्नता को बढ़ाते हुए कहा-"मेरे वरदान से हनुमान न केवल स्वयं सभी संघर्षों एवं युद्धों में अजेय रहेंगे, बल्कि इनके स्मरणमात्र से इनके भक्त परमपराक्रमी एवं युद्धविजेता होंगे।" गणेश व कार्तिकेय के इन वरदानों के साथ तो जैसे आशीषों एवं वरदानों का पिटारा खुल गया। वानरराज केसरी एवं देवी अंजनी इसे देखकर मुग्ध थे। माता पार्वती भी प्रमुदित एवं पुलकित हो रही थीं; क्योंकि उनके नेत्रों के समक्ष अब भगवान सदाशिव की लीला का रहस्य प्रकट हो रहा था। ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्रा विधायक ज्योतिष एवं वास्तु अनुसंधान केंद्र विभव खंड 2 गोमती नगर एवं वेदराज कांप्लेक्स पुराना आरटीओ चौराहा लातूर लखनऊ 94 150 8 77 11923 57 22996