रामकाज किन्हे बिना मोहि कहा विश्वास !
ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र 9415 0877 11
श्रीरामचरित मानस के इस वाक्य को यदि मानव समाज अपने जीवन का ध्येय वाक्य बना ले, लक्ष्य बना ले, अपने कर्मों में अंगीकार करते हुए इस महावाक्य के पदचिन्होें पर चलना प्रारम्भ कर दे, तो विश्व की सभी समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाएगा। -
राम का नाम लेकर जो मर जायेंगे, वो अमर नाम दुनिया में कर जायेंगे।
ये न पूछो कि मर कर किधर जायेंगे, हम मुसाफिर हैं लौटकर अपने घर जायेंगे।।
क्योंकि - आये हैं सो जायेंगे राजा रंक फकीर,
कईक विमाने च‹ढ चले कइक बँधे जंजीर। -
मानस में हजारों हजार पात्र हैं सबकी अपनी अलग-अलग महति भूमिका है तथापि एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कृष्ण कथा लीलापुरुषोत्तम की कथा है और श्रीरामकथा मर्यादापुरुषोत्तम की अभिव्यक्ति है। कृष्ण द्वारा कही हुई बातों पर चलने वाला परम तत्व को प्राप्त होता है, और उनके पदचिन्हों पर चलने वाला अधमाधम गति को प्राप्त करता है। जबकि राम द्वारा कहे और किये दोनों ही प्रकार वाक्य एवं चरित्रों का अनुकरण करने वाला निःसंदेह अवध को प्राप्त होता है - अवध अर्थात् जिसका वध न हो सके। इसी कारण राम काज किन्हे बिना मोहि कहा विश्राम को महावाक्य के रुप में मैंने उद्घोषित किया है।
सुवर्चना नामक ऋषि पुत्री ने भगवान को मीराबाई की तरह अपना पति स्वीकार कर लिया था। और उन्हें पति के रूप में पाने के लिए वह पूर्ण यौवना, महासुंदरी, जंगल में नदी के तट पर घनघोर तपस्या कर रही थी। उसकी सुन्दरता को देखकर वहाँ से गुजर रहे रावण ने कामवासना के आवेश में उस :ऋषि पुत्री के साथ जबर्दस्ती बलात्कार किया, वह असहाय अबला बलात्कार होने के पश्चात ग्लानि वश अपने शरीर का त्याग करते हुए रावण को श्राप देते हुए बोली कि हे पापी - जा, अब जब तू किसी भी पर नारी को दुषित दृष्टि से स्पर्श करेगा, उसी क्षण तेरी मृत्यु हो जाएगी।
किसी भी व्यक्ति के अन्दर साधु और शैतान दोनों एकसाथ निवास करते हैं, हम आप, सभी कोई ज्यादा और कोई कम साधु और शैतान हैं। अन्तर बस इतना है कि किसी में साधुत्व ज्यादा और किसी में शैतानियत की पराकाष्ठा। बहुत से विद्वान इस जगत में हुए, बहुतों ने अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग इतनी घृणित संस्कृति को प्रसारित करनेवाली वृत्ति से किया जिसको आप आज भी अग्निवेश जैसे ढोगी आर्य समाज का चोला ओ‹ढे हुए भे‹िडयों की अभिव्यक्ति में देख लेते हैं। रावण भी ऐसा ही था। विद्वान, शिवभक्त, कर्मकाण्डी, चारों वेदों का ज्ञाता, शिल्प, ज्योतिष, व्याकरण, संगीत, नृत्य, शस्त्र जैसी हजारों हजार विद्याओं का परमाचार्य पर उसका राज्य कैसा था? शासित लंका कैसी थी?
कनककोटि विचित्र मणिकृत सुन्दराय तना घना।
चौहट्ट बट्ट सुभट्ट बीथी, चारुपुर बहुविधि बना।
गाय, भैंस, बकरे, हाथी, घो‹डे, मनुष्य, कुत्ते, बिल्ली, बंदर, मुर्गे, मछलियाँ ये कहाँ खाये जाते हैं, सोने की लंका में ही खाये जायेंगे। यज्ञों में हड्डियाँ कहाँ फेकी जाती हैं, जो पुरोहित कर्मकाण्ड के नाम पर यज्ञ-हवन करने के बाद, देवी के नाम पर आसन से उठने के पूर्व शराब पीते है, हवन कराने के बाद भे‹ड और बकरे से बना हुआ खाना खाते हैं, अल्लाह के नाम पर, जीसस के नाम पर गाय और बकरों की गर्दन काटते हैं। वही तो लंका के रहने वाले निशाचर हैं। तो निशाचरों का आचार्य, मुक और बधीर पशुओं को खाने वाला पुरोहित चाहे कितना भी विद्वान हो, है वह रावण। ऐसा रावण जो मंत्र तो शास्त्रों के बोलता है और कर्म राक्षसों के करता है। ऐसा था रावण। और ऐसी थी उसकी लंका। ऐसे ही रावण ने संस्कृति रुपी सीता का अपहरण कर लिया था।
अशोक वाटिका में त्रिजटा ने सीता से पूछा - तेरा राम कहाँ है? सीता बोली - पशु, पक्षी, वन, उपवन, नदी, नाले, पहा‹ड-पौधे, तुझमें, मुझमें सबमें मेरा राम है। मंद हास्य करते हुए त्रिजटा ने कहा हे सुन्दरी- क्या तेरा राम रावण में भी है? सीता ने कहा - हाँ। त्रिजटा बोली - हे सुभगे! जब तेरा राम रावण में है, तो ये पुण्य क्यों नहीं करती कि रावण को अपना पति मान ले। युद्ध रुक जाएगा। लाखों लाख वानर, रीक्ष, मानव, घो‹डे, हाथी, राक्षस इस महासंहार से बच जायेंगे। राम वापस लौट जायेंगे।
‘सीता ने कहा - हे त्रिजटा ये लाखों लाख पशु-पक्षी, मानव मारे जायेंगे तो फिर से जन्म ले लेंगे पर मैं भारत की राजमाता हूँ। मैं भारतीय संस्कृति की प्रतीक हूँ, यदि मैंने ऐसा किया तो आने वाली सभी स्त्रियाँ ऐसा करेंगी। ये लाखों लाख पशु-पक्षी, मानव तो फिर से जन्म ले लेंगे। पर यदि संस्कृति मर गयी तो मर गयी। बस!ङ्क यह रामकाज था। ऐसे रामकाज को संस्कृति के खोज को, संस्कृति की सुरक्षा के लिए जिसने अपने जीवन का परम ध्येय बना लिया। वही हनुमान है। वही बजरंगी है। अर्थात् उसके सभी अंग बज्र के बने हुए हैं। उसका अंग-भंग हो सकता है, उसके हाथ-पांव काटे जा सकते हैं। पर बज्र के समान उसके लक्ष्य से उसे कोई डिगा नहीं सकता।
हनुमान जी मानव थे या बंदर, किसके पुत्र थे, कहाँ जन्मे थे, यह जानने की उतनी आवश्यकता नहीं है। यह तो ऐतिहासिक खोज का विषय हो सकता है। परन्तु उनका जीवन परिचय नहीं बल्कि उनका लक्ष्य परिचय हमारे आपके लिए अनुकरणीय है। आज हनुमान जयन्ती है। हनुमानजी का एक ही लक्ष्य था और वह यह कि -
आशा एक रामजी की, दूजी आशा छोड दे।
नाता एक रामजी से, दूजा नाता तो‹ड दे।।
साधू संग रामरंग, अंग अंग रंगिये।
जाहि विधि राखे राम ताही विधि रहिए।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांधि गये अचरज नाहि। - मुद्रिका चिन्ह को कहते हैं, ठप्पे को कहते हैं। अंगूठी को कहते हैं। मानस में अंगूठी उतारने का प्रसंग दो बार आता है। प्रथम - पिय हिय की सिय जान निहारी, मणि मुदरी मन मुदित उतारी। केवट को देने के लिए सीता ने अपनी अंगूठी उतारी थी, और हनुमान को देने के लिए भगवान राम ने अपनी अंगूठी उतारी थी।
अंगूठी का सम्मान या तो केवट कर सकता है, या तो हनुमान जी कर सकते हैं। क्योेंकि उनके लिए वह अंगूठी नहीं मुद्रा है। चिन्ह है, लक्ष्य है, अपने जीवन का। और जिसने इसप्रकार प्रभुमुद्रिका को अपने मुख में अर्थात् अपनी वाणी में, हृदय में अपने, विचारों के साथ अपने आत्मसात कर लिया हो, वह सात समुन्द्र तो क्या सात ब्रह्माण्ड को भी लांघने की क्षमता रखता है। इसप्रकार इसी कारण तो तुलसी ने कहा - राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिन पैठारे।
हे मारुति! हे अंजनि! राम के द्वार के रक्षक तो तुम्हीं हो -
यह घर है गुरुदेव का, खाला का घर नाहि,
शीश उतारे भुइ धरे तब पैठे घर माहि।
राम के घर में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले हनुमान की आज्ञा लेनी प‹डेगी। क्योंकि - जहाँ काम वहाँ राम नहीं, जहाँ राम नहीं काम। दोनो कबहुँ ना मिलैं, रवि रजनी इकठांव। शायद इसीलिए हनुमान जी को ब्रह्मचारी बता दिया गया। वे ब्रह्मचारी थे अथवा गृहस्थ, वे निःसंतान थे या बहुसंतान, उनका स्पर्श स्त्रियों को करना चाहिए या नहीं मैं इस चर्चा में नहीं प‹डता। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि यदि हमको आपको राम के घर में जाना है तो राम के द्वार में प्रवेश करने के पहले मंदिर में प्रवेश करने के पहले हनुमानजी की आज्ञा लेनी प‹डेगी। और वो आज्ञा देंगे कैसे -
लंका निशिचर निपट निवासा, इहा कहाँ सज्जन को वासा।
रात और दिन धन, परिवार, सम्मान, विद्या, शक्ति, व्यसन, सतो, रजो और तमो जैसे गुणों के पीछे भागने वाले हम आप, जिस लंका में रहते हैं, यह जो हमारी शरीर रुपी लंका है, जिसमें काम-क्रोध, लोभ-मोह, माया-मत्सर जैसे निशाचर हमेंशा निवास कर रहे हैं, इसमें भला विभिषण के जैसे जो - विशेष तो है, पर भीषण विशेष। काम-क्रोध, लोभ-मोह के लिए भीषण विशेष है।
रावण का भाई है पर रावण का सबसे ब‹डा शत्रु भी है। राक्षस है पर रामभक्त है। जब हम इस काम-क्रोध, लोभ-मोह रुपी लंका में बसने वाली बुद्धि को अपने बौद्धिक विभीषण के द्वारा समझाने में समर्थ हो जायेंगे, तो हनुमान स्वयं ही कहेंगे कि - अरे! इस लंका में रामभक्त है और वह हनुमान निःसंदेह हमें राम की शरणों में ले जाकर अवध का अधिकारी बना देंगे
|
|