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वर्ष के 365 दिनों में से
15 दिन उन ( पितृ पक्ष ) ऊर्जाओं के लिए क्यों दिए गए, इस विज्ञान को समझना आवश्यक है।
Jyotish Acharya Dr Umashankar Mishra 9415 087 711
ये 15 दिन अत्यंत पवित्र दिन होते हैं लेकिन लोक में इन्हें एक अजीब भाव मे देखने की प्रवृत्ति आ गयी है। ऐसा पूर्व में नही था, क्योंकि अपने पूर्वजों के लिए निर्धारित इन दिनों में
पहले लोक इसे उसी भाव मे देखता था। बीच की पराधीन जीवन शैली और अवैज्ञानिक शिक्षा ने इसको समझे बिना ढकोसला या कर्मकांड बताना शुरू कर दिया।
अब आप समझिए कि
जो हमारा शरीर है वह हमारी मृत्यु के बाद भी बचा रह जाता है। इस शरीर का निर्माण जिन पांच तत्वों से हुआ है, जिनके बारे में आधुनिक विज्ञान भी अब मान चुका है, वे पांच तत्व कैसे अपने मूल तत्वों में मिलें, इसके लिए हमारी संस्कृति में दहन की व्यवस्था की गई है।
जब प्राणहीन शरीर का दाह किया जाता है तो पृथ्वी तत्व पृथ्वी में, अग्नि तत्व अग्नि में, वायु तत्व वायु में मिल जाता है। जब पुष्प यानी अस्थि विसर्जन करते हैं तो जल तत्व जल में मिल जाता है । आकाश तत्व पहले ही निकल चुका होता है। लेकिन यह आकाश तत्व 13 दिंनो तक अपने अन्य अवयवों के समीप ही रहता है।
एक एक अवयव को अपनी प्रकृति में मिलने में कुल 13 दिन लग जाते है। प्राणतत्व के 13 दिनों के स्वरूप को प्रेत कहा जाता है । यहां यह भी समझने की अवाश्यकता है कि प्रेत कोई नकारात्मक शब्द नही है बल्कि यह आत्मतत्व की यात्रा का एक सूक्ष्म प्रकार है जो मृत्यु को प्राप्त शरीर के श्राद्ध तक रहता है। विधिपूर्वक श्राद्ध के बाद ही वह पितर बनता है।
श्राद्ध के अंतिम दिन जब उसे पिंड के साथ गति दी जाती है और अपने पूर्व की
तीन पीढ़ियों के पिंड में मिश्रित किया जाता है तब उस परम प्राण तत्व की यात्रा शुरू होती है जो उसके अपने निजी अर्जित पुण्य, पाप के अधार पर योनिगत करती है। पुत्र द्वारा समुचित श्रद्धा अर्पण यानी श्राद्ध के बाद ही यह यात्रा आगे बढ़ती है।
चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाता है, पिंडदान कराते समय पंडित लोग केवल तीन ही पितरों को याद करवाते हैं। वास्तव में सात पितरों को स्मरण करना चाहिए। हर चीज सात हैं। सात ही रस हैं,
सात ही धातुएं हैं, सूर्य की किरणें भी सात हैं।
इसीलिए सात जन्मों की बात कही गई है। पितर भी सात हैं। सही मात्रा 56 होती हैं। कैसे....?
इसे समझें।
व्यक्ति,
उसका पिता,
पितामह,
प्रपितामह,
वृद्ध पितामह,
अतिवृद्ध पितामह
और सबसे बड़े वृद्धातिवृद्ध पितामह,
ये सात पीढियां होती हैं।
इनमें से वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश,
अतिवृद्ध पितामह का तीन अंश, वृद्ध पितामह का छह अंश, प्रपितामह का दस अंश, पितामह का पंद्रह अंश और पिता का इक्कीस अंश व्यक्ति को मिलता है।
इसमें उसका स्वयं का अर्जित 28 अंश मिला दिया जाए तो 56 सही मात्रा हो जाती है।
जैसे ही हमें पुत्र होता है,
वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश उसे चला जाता है
और उनकी मुक्ति हो जाती है। इससे अतिवृद्ध पितामह
अब वृद्धातिवृद्ध पितामह हो जाएगा। पुत्र के पैदा होते ही
सातवें पीढ़ी का एक व्यक्ति मुक्त हो गया। इसीलिए सात पीढिय़ों के संबंधों की बात होती है।
यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पुत्र का अर्थ केवल संतति नही है।
शास्त्रों में पुत्र को बहुत स्पष्ट परिभाषित किया गया है-
पुन्नर कात्रायते हि पुत्रः।।
पुत्र वही है जो अपने पितर के लिए समुचित श्रद्धा का निर्वहन करता है, यह उस शरीर की निजी संतति भी हो सकती है या पुत्रवत कोई अन्य भी। पुत्र शब्द को हमने रूढ़ि में संतान के जोड़ कर ही देखा है जबकि इस शब्द का केवल संतान से कोई संबंध नही है। पुत्र सिर्फ वह है जो पूर्वज की श्रद्धा विधि करे। उदाहरण के लिए भगवान श्रीराम को
दशरथ जी का पुत्र इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने पुत्रधर्म का निर्वाह किया।
जो संतति पुत्र धर्म का निर्वाह नही करती वह संतान होती है लेकिन पुत्र नही। पुत्र की शास्त्रीय परिभाषा बहुत स्पष्ट है।
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