सृष्टि का रहस्य~
- Jyotish Acharya Dr Umashankar Mishra 9415 087 711---------------------------------------
सृष्टि विज्ञान के दो पहलू हैं। पहला पहलू है कि सृष्टि क्या है? आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि आज से 13.7 अरब वर्ष पहले बिग बैंग यानी कि महाविस्फोट हुआ था। उसके बाद जब भौतिकी की रचना हुई,अर्थात् पदार्थ में लंबाई, चौड़ाई और गोलाई आई। वहां से विज्ञान की शुरुआत हुई। उससे पहले क्या हुआ? इस पर विज्ञान मौन है। क्योंकि भौतिकी की यह सीमा है। क्वांटम सिद्धांत के आधार पर अवश्य आगे का जानने के कुछ प्रयास हुए,परंतु उसमें कुछ खास सफलता नहीं मिली। उससे जो कुछ निकाला गया, वह सारी बातें हमारे शास्त्रों में पहले से है।परंतु सृष्टि रहस्य को समझने से पहले हम यह जान लें कि यह ब्रह्मांड कैसा है,उसे हम किस तरह से देखते हैं और भारतीय विधा में उसे किस प्रकार से देखा गया। पहले इसका एक विवरण यहां प्रस्तुत है।
भगवद्गीता में दो प्रकार के जगत की बात कही गई है-क्षर और अक्षर जगत।क्षर जगत में यह संपूर्ण ब्रह्मांड आता है और इसकी विविधता में सन्निहित एकत्व को अक्षर ब्रह्म कहा गया है।अभी हम इसी क्षर जगत के विज्ञान यानी कि ब्रह्मांड का चित्र यहां रखूंगा। साथ ही इस ब्रह्मांड का जो चित्र आज के आधुनिकतम यंत्रों से देखा गया वह भी प्रस्तुत किया जाएगा।
सबसे पहले मनुष्यों के मन में प्रश्न उठा कि हम कौन हैं, कहां से आए, हमें बनाने वाला कौन है और ये सारी चीजें कब तक रहेंगी।इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का उन्होंने प्रयास किया तो ज्ञान की दो विधाएं प्रारंभ हुई।एक को हम दर्शन कहते हैं और दूसरे को विज्ञान कहते हैं।जिस समय मिश्र में शरीर को सुरक्षित रखने के लिए पिरामिडों का निर्माण किया जा रहा था,उस समय भारत ज्ञान में रमा हुआ था और शरीर से ऊपर उठ कर अध्यात्म तथा आत्मा को जानने का प्रयास कर रहा था।उसने पिरामिड तो नहीं बनाया,परंतु आत्मा को जानने का प्रयास किया।कई बार यह प्रश्न लोग पूछते हैं और यह प्रश्न मुझसे भी कई लोगों ने पूछा कि आज तो इतने विकसित दूरबीन जैसे यंत्र हैं जिससे हम आज ब्रह्मांड को देख रहे हैं, प्राचीन काल में तो ये यंत्र नहीं थे,फिर उन्होंने ब्रह्मांड को कैसे देखा?
इसको समझने के लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। आप जल की एक बूंद को लें उसे कन्याकुमारी के समुद्र तट पर ले जा कर पूछें कि तुम कहां हो तो वह उत्तर देगी वह कन्याकुमारी के तट पर है। परंतु जैसे ही उस बूंद को समुद्र में मिला देंगे,उसी क्षण वह समुद्र हो जाएगी, तो वह बूंद केवल हिंद महासागर नहीं होगी,वह उसी क्षणअटलांटिक महासागर, प्रशांत महासागर,पीला सागर,लाल सागर सभी कुछ हो जाएगी क्योंकि पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमय है, तो फिर वह पूरे विश्व की खबर आपको देगी। ठीक इसी प्रकार हमारे ऋषियों ने समाधि अवस्था में जाकर अपनी व्यक्तिगत मेधा को ब्रह्मांडीय मेधा के साथ एकाकार कर दिया। इससे उन्हें ब्रह्मांड की सारी चीजें स्पष्ट हो गईं और उसे उन्होंने श्रुति परंपरा में डाल दिया।उसे ही बाद में लेखनीबद्ध किया।इसलिए इसे दर्शन कहा गया। इसे वह देखता है। कहा भी गया है ऋषयो मंत्रद्रष्टार:। ऋषि मंत्रों को देखते हैं। देख कर साक्षात्कार किया।इसलिए उन्होंने वेद-वेदांग,षड दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक आदि ग्रंथों की रचनाएं कीं। भारत के ज्ञान का प्रकाश पूरी दुनिया में फैला। यहां तक कि वह चीन की दिवाल को पार करके वहां तक भी पहुंचा।
हमारे यहां अंकविद्या की बात होती है।ज्योतिष काअर्थ केवल फलित ज्योतिष नहीं है। ज्योतिष का अर्थ है नक्षत्र विद्या। अंकगणित के बारे में हमें यह बताया गया कि शून्य की खोज आर्यभट ने की।परंतु यजुर्वेद के एक मंत्र 17/2 में एक से लेकर एक पर घात सत्ताइस शून्य तक का वर्णन है।साफ है कि शून्य का ज्ञान आर्यभट के पहले से ही यजुर्वेद के काल से हमारे यहां रहा है।यहीं से यह अंक विद्या अरब और वहां से यूरोप पहुंची। इसलिए इसे वहां अरबी न्यूमेरल्स कहा जाता है। दुर्भाग्य से अपने यहां भी इसे अरबी न्यूमेरल्स ही कहा जाता है।
जब इटली में पीसा की मीनार बनाई जा रही थी,भारत वेधशालाओं का निर्माण कर रहा था।उज्जैन, जयपुर में और दिल्ली में वेधशालाएं बनाई गई थीं। पश्चिम में वर्ष 1609 में गैलिलियो ने दूरबीन बनाया था। वहां से यह आगे बढ़ता गया। इन दूरबीनों से देखने के बाद वैज्ञानिकों को यह समझ आया कि पृथ्वी पर स्थित दूरबीन से हम देखें तो हम अपनी आकाश गंगा का एक हिस्सा भर ही देख सकते हैं।इससे अधिक देखने के लिएआकाश में दूरबीनें स्थापित करनी होंगी।नासा ने धरती से 486 कि.मी. की ऊंचाई पर हब्बल टेलिस्कोप स्थापित किया।फिर एक टेलीस्कोप चंद्राएक्सरे 7000 कि.मी. की ऊंचाई पर और स्पिट्जर को धरती से 18 हजार कि.मी. की ऊंचाई पर स्थापित किया गया।इसके बाद और भी कई टेलिस्कोप अंतरिक्ष में स्थापित की गईं ताकि हम ब्रह्मांड को देख सकें।अंतरिक्ष मे एक स्टेशन स्थापित किया गया है जो 7.66 कि.मी.प्रति सेकेंड की गति से चल रहा है।उस स्टेशन पर रहने वाले व्यक्ति के लिए चौबीस घंटे में सोलह दिन-रात होते हैं।
हमें बताया जाता है कि आर्यभट ने सबसे पहले कहा कि पृथ्वी गोल है और हमें तो बचपन में यह पढ़ाया गया था कि कॉपरनिकस ने सबसे पहले कहा कि पृथ्वी गोल है। उसके साथ ईसाइयों ने बड़ा ही अमानवीय व्यवहार किया, क्योंकि बाइबिल के जेनेसिस के अध्याय में लिखा है कि पृथिवी चपटी है।हमारे अंदर जब कुछ जागरुकता आई तो हम कॉपरनिकस से छोड़ा पीछे गए और कहा कि आर्यभट ने हमें बताया कि पृथ्वी गोल है। परंतु ऋग्वेद 1/33/8 में कहा है चक्राणास: परिणहं पृथिव्या। यानी पृथिवी चक्र के जैसी गोल है। पृथिवी से जुड़ा जो भी विषय हम पढ़ते हैं, वह विषय है भूगोल। यह नाम ही बताता है कि पृथ्वी गोल है।
फिर हमें वैदिक ऋषियों ने बताया कि माता भूमि: पुत्रोस्हं पृथिव्या:।यानी हम पृथ्वी की संतानें हैं,वह हमारी मां है। माता कैसे हैं? मां के गर्भ में हम एक झिल्ली में होते हैं, ताकि माता के शरीर केअंदर के बैक्टीरिया को नुकसान नहीं पहुंचा पाता। मां के गर्भ में ही इस झिल्ली से ही हमें सुरक्षित रखा गया है। तभी हम जन्म ले पाते हैं।ठीक इसी प्रकार पृथ्वी भी एक झिल्ली में सुरक्षित है।इसे हम ओजोन परत कहते हैं।यह परत हमें सूर्य के हानिकारक विकिरणों से सुरक्षित रखती है।नासा ने इसका चित्र लिया है।उससे पता चलता है कि यह सुनहरे रंग का दिखता है।ऋग्वेद में इसका उल्लेख पाया जाता है।वहां कहा गया है कि वह परत हिरण्य के रंग का अर्थात सुनहरा है। इतनी सूक्ष्मता से ऋग्वेद इसका वर्णन करता है।
आज हम जानते हैं कि पृथ्वी पश्चिम से पूरब की ओर घूम रही है।इसलिए सूर्योदय हमेशा पूरब में होता है।इस बात को ऋग्वेद (7/992) का ऋषि कहता है कि बूढ़ी औरत की तरह झुकी हुई पृथ्वी पूरब की ओर जा रही है।ऋग्वेद हमें यह भी बताता है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी हुई है।आज आधुनिक विज्ञान भी बताता है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर 23.44 डिग्री पर झुकी हुई है।इसके अलावा एक घूमते हुए लट्टू में जो एक लहर सी आती है,उसी प्रकार पृथ्वी के घूर्णन में भी एक लहर आती है।इसके कारण पृथ्वी की एक और गति बनती है।इस चक्र को पूरा करने में पृथ्वी को छब्बीस हजार वर्ष लगते हैं।भास्कराचार्य ने इसे भचक्र सम्पात कहा है और इसकी कालावधि 25812 वर्ष निकाली थी।यह आज की गणना के लगभग बराबर ही है।इस गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव तेरह हजार वर्षों तक सूर्य के सामने और तेरह हजार वर्षों तक सूर्य के विपरीत में होता है।जब यह सूर्य के विपरीत में होता है तो बर्फ युग होता है और जब यह सूर्य के सामने होगा तो यहां ताप बढ़ा जाएगा जिससे बर्फ पिघलने लगेगी।इसके लिए आधुनिक वैज्ञानिकों ने पिछले 161 हजार वर्षों के उत्तरी ध्रुव में होने वाले तापमान में परिवर्तन की एक तालिका बनाई है।इससे भी यह बात साबित हो जाती है।अब हम आज जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।इसके बारे में भी ऋग्वेद का एक मंत्र 10/149/1 हमें बताता है कि सविता यानी कि सूर्य एक यंत्र की भांति पृथ्वी को अपने चारों ओर घुमा रहा है।पृथ्वी की गति 29.78 कि.मी.प्रति सेकेंड की गति से घूम रही है। यह अपना परिक्रमा पथ 365 दिन छह घंटे बाईस मिनट में पूरा करती है।सूर्य पृथ्वी को कैसे घुमा रहा है? यंत्र की भांति गुरुत्व के बल से। गुरुत्व की अगर बात की जाए तो सभी को यही पढ़ाया जाता है कि गुरुत्व का सिद्धांत आइजैक न्यूटन ने दिया।कहा जाता है कि उसने बगीचे में सेब को गिरते देख कर यह सिद्धांत दिया। अब आप वैशेषिक दर्शन का यह सूत्र देखें–अपां संयोगे अभावे गुरुत्वात् पतनम्।इसका साफ अर्थ है कि गुरुत्व के कारण गिर जाएगा। प्रश्न उठता है कि कणाद पहले हुए कि न्यूटन? कणाद तो काफी पहले हुए हैं।दूसरी बात यह है कि आज से सात वर्ष पहले लंदन के टाइम्स पत्रिका में एक खबर छपी थी कि न्यूटन के व्यक्तिगत पुस्तकालय में आर्यभटीय ग्रंथ मिला।इसमें आर्यभट की इस पुस्तक के उस पृष्ठ को चिह्नित किया हुआ था, जिसे संभवत: न्यूटन ने ही किया होगा, जिसमें आर्यभट के मुजफ्फरपुर में लीची को नीचे गिरते देखने और गुरुत्व के सिद्धांत की व्याख्या किए जाने की चर्चा है।इसका उल्लेख करके टाइम्स का संवाददाता लिखता है कि संभव है कि न्यूटन ने आर्यभट के इस उदाहरण की चोरी कर ली हो और लीची की जगह सेब देखने की बात कह दी।
पृथ्वी का परिक्रमा पथ बारह भागों में बांटा गया है। इसे ही हम बारह राशियां कहते हैं।इसे कहा जाता है कि यह सारी जानकारी हमने बेबिलोनिया तथा ग्रीस से ली। ऋग्वेद के 1/164/48वें मंत्र में कहा है बारह राशियों की चर्चा पाई जाती है। ऋग्वेद तो ग्रीस के इतिहास से काफी पुराना है। ऐसे में राशियों का सिद्धांत भारत का अपना सिद्धांत साबित होता है। इसे कहीं बाहर से नहीं लिया गया।
आज के विज्ञान ने पता लगाया है कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर एक झूले की तरह घूम रही है।उसका परिक्रमा पथ स्थिर नहीं है।वह सूर्य की ओर दोलन करता है।इसका कालखंड एक लाख से लेकर चार लाख वर्षों का है।इस दोलन में पृथ्वी कभी सूर्य के नजदीक चली जाती है और कभी सूर्य से एकदम दूर। इससे भी पृथ्वी के वायुमंडल में बदलाव आता है।
हमने एक पैराणिक कथा सुनी होगी अगस्त्य द्वारा समुद्र को पी लेने की।यह कहानी भी वास्तव में अंतरिक्ष के अगस्त्य तारे से जुड़ी हुई है।अगस्त्य ऋषि द्वारा खोजे जाने के कारण इस तारे का नाम अगस्त्य तारा पड़ा।अंतरिक्ष के पिंडो के नाम ऐसे ही उनके खोजकर्ताओं के नाम पर या किसी महान हस्ती के नाम पर रखे जाते हैं।बुध नाम के ऋषि ने बुध ग्रह को खोजा। इसी प्रकार शुक्र ऋषि ने शुक्र का और वृहस्पति ऋषि ने वृहस्पति की खोज की थी। यह अगस्त्य तारा हमारे सूर्य से सौ गुणा बड़ा है।अगस्त्य तारा दक्षिण में उगता है।यह मई में अस्त हो जाता है। यह तब उदय होता है जब सूर्य दक्षिणायण होते हैं। तो एक तो सूर्य की सारी उष्मा दक्षिण की ओर जा रही है, दूसरी ओर अगस्त्य की उष्मा भी आ रही है। दोनों की संयुक्त उष्मा पृथिवी के दक्षिण में पड़ती है।हम जानते हैं कि सारे समुद्र दक्षिण में ही हैं। उन दोनों की उष्मा के कारण समुद्र से वाष्पीकरण होने लगता है। सूर्य जनवरी में उत्तरायण हो जाते हैं,परंतु अगस्त्य तारा मई तक रहता है,तब तक वाष्पीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। इसे ही अगस्त्य का समुद्र पीना कहा जाता है। यह एक पर्यावरणीय घटना है।जैसे ही अगस्त्य तारा अस्त होता है,वाष्पीकरण की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।
वराहमीहिर के सिद्धांत के अनुसार साढ़े छह महीने में मेघ गर्भधारण कर लेता है। इसलिए अगस्त्य के अस्त होते हैं मई के अंतिम सप्ताह से मानसून केरल से शुरू हो जाता है और जून के अंतिम सप्ताह में उत्तर भारत में आ जाता है। कालीदास के मेघदूत को अगर हम पढ़ें तो उसमें हमें मानसून का यह पूरा चक्र मिल जाएगा।
प्रकाश की गति के बारे में ऋग्वेद 1/50/9 में कहा गया है तरणिर्वश्वदर्शतो ज्योतिकृदसि सूर्य विश्वमाभासिरोचन। इसकी व्याख्या में सायणाचार्य ने लिखा है कि आधे निमिष में प्रकाश 2202 योजन यानी कि 186 हजार मील की दूरी तय करता है। आधुनिक गणना से भी यही गति प्राप्त होती है। यह बात संस्कृत के विद्वानों को तो पता है और वे इसे कहते भी हैं। इसको ही आगे बढ़ाते हुए ऋग्वेद 3/53/8 में कहा गया है त्रिर्यत् दिव: परिमुहुर्तम् आ अगात् स्वै:। अर्थात् एक मुहुर्त में सूर्य का प्रकाश तीन बार पृथिवी पर आ जाता है। एक मुहुर्त में 24.5 मिनट होते हैं। इस गणना से सूर्य का प्रकाश पृथिवी पर 8.17 मिनट में पहुंचता है। आधुनिक विज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है। वह सूर्य के प्रकाश के पृथिवी तक पहुंचने का समय 8.19 मिनट बताता है। इससे हम सूर्य से पृथिवी की दूरी की भी गणना कर सकते थे। ऋग्वेद की इस गणना की बात कोई नहीं करता।सायण तो नौवीं शताब्दी में हुए हैं। ऋग्वेद तो काफी पुराना ग्रंथ है।
अपने शास्त्रों में पृथ्वी को अग्निगर्भा यानी कि अग्नि के गर्भ से उत्पन्न कहा गया है।आधुनिक विज्ञान ने आज से साढ़े चार अरब वर्ष पहले की पृथ्वी का जो चित्र बनाया है,उससे यह सही साबित होता है।आधुनिक विज्ञान कहता है कि उस समय पृथ्वी एक हॉट बॉल यानी कि आग का गोला थी। धीरे- धीरे वह ठंडी हुई। महाभारत में भीष्म पृथ्वी की गोलाई को बारह हजार कोस यानी कि चौबीस हजार मील बताते हैं। इसको किलोमीटर में बदलें तो यह अठतीस हजार छह सौ चौबीस कि.मी. आता है।आज का विज्ञान भी पृथ्वी की परिधि को चालीस हजार कि.मी. ही मानता है।यह लगभग समान ही है।वैदिक ज्योतिष में पृथ्वी का भार भी मापा गया है और 1600 शंख मन बताया गया है।इसे यदि हम किलोग्राम में बदलें तो आधुनिक गणना के अनुसार निकाले गए मान 6 गुणा 1024 के निकट ही आता है।
सौर मंडल को अगर हम देखें तो अपने यहां पुराणों में बहुत सारी कथाएं ऐसी मिलेंगी जो आपत्तिजनक प्रतीत होती हैं। जैसे कि एक कथा वृहस्पति की पत्नी और चंद्रमा के जार से बुध की उत्पत्ति होने की है। वास्तव में ऐसी कथाएं अंतरिक्ष जगत की हैं।यह कथा वृहस्पति के विभिन्न नक्षत्रों में भ्रमण करने और चंद्रमा के उसके घर में प्रवेश करने के ज्योतिषीय घटना की है।ऐसी कथाओं को बनाने का उद्देश्य इतना भर ही था कि यदि ज्योतिषीय ज्ञान कभी लुप्त भी हो तो इन्हें डिकोड करके उसे फिर से समझा जा सकेगा।इसी प्रकार आज हम देखते हैं कि शनि की काफी महिमा मानी जाती है। वास्तव में देखा जाए तो हमारे सौर मंडल में शनि का विशेष महत्व है भी। शनि और सूर्य के बीच में क्षुद्र ग्रहों की एक विशाल पट्टी है। इन्हें शनि अपनी ओर खींचता रहता है। यदि शनि इन्हें अपनी ओर नहीं खींचता तो ये सूर्य की खिंच जाते। ऐसे में क्षुद्र ग्रहों के पृथ्वी से टकराने की काफीअधिक आशंका होती।लगभग प्रतिदिन कोई न कोई क्षुद्र ग्रह पृथ्वी से टकराता रहता और फिर यहां जीवन संभव ही नहीं होता।इसलिए भी भारतीयों ने शनि को इतना महत्वपूर्ण माना।
सौर मंडल के अलग-अलग ग्रहों का परिक्रमा पथ अलग- अलग है और इस कारण उनके एक वर्ष का मान भी अलग- अलग हैं।जैसे वरूण यानी कि नेपच्यून ग्रह का एक वर्ष पृथ्वी के 164 वर्ष का है।यानी यदि आप नेपच्यून पर एक वर्ष बिता कर लौटेंगे तो पृथिवी पर 164 वर्ष बीत चुके होंगे। इसको समझाने के लिए भी पुराणों में रेवती की एक कथा आती है। इस कथा में रेवती के विवाह के लिए चिंतित उसके पिता उसे लेकर ब्रह्मलोक चले जाते हैं।वहां वे ब्रह्मा से रेवती के लिए योग्य वर के बारे में पूछते हैं।ब्रह्मा कहते हैं कि शीघ्रता से वापस पृथ्वी पर जाओ अन्यथा वहां वर नहीं मिल पाएगा। वे सतयुग में पृथ्वी से गए थेऔर लौटे तो यहां द्वापर युग का अंत चल रहा था।फिर उन्होंने रेवती की शादी बलराम से की। इस प्रकार ब्रह्मांड में भिन्न-भिन्न संदर्भों में भिन्न-भिन्न वर्ष होते हैं।
आज हम यह जानते हैं कि चंद्रमा सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है।यह बात यजुर्वेद 18/40 का ऋषि भी कहता है। वहां कहा गया है,सूर्य रश्मि: चन्द्र्मसं प्रति दीप्यते। सूर्य की रश्मि से चंद्रमा प्रकाशमान है।भारतीय मासों के नाम चंद्रमा के अनुसार ही तय किए गए हैं।चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है,उसके नाम पर ही उस मास का नाम होता है। चित्रा नक्षत्र में चंद्रमा हो तो वह चैत्र मास कहलाता है,विशाखा में हो तो वैशाख,ज्येष्ठा में हो तो ज्येष्ठ कहलाएगा।
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