कौन है भगवान दक्षिणमूर्ति ? क्या है भगवान आदिनाथ शिवशंकर के शिव प्रतीकों के पीछे का रहस्य?
ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र 94150 87711
भगवान शंकर के कई रहस्य है,बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है।दक्षिण भारत के कई मंदिरों में बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख किये हुए भगवान शिव की मूर्तियों का पाया जाना आम बात है। शिव का यह रूप दक्षिणमूर्ति कहलाता है। यह रूप शिव को गुरुओं के गुरु के रूप में दर्शाता है।
2-दक्षिणमूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। वह बरगद के पेड़ की छाया में बैठते हैं। बरगद का पेड़ भारत के साधु परंपराओं के साथ जुड़ा हुआ है और ये तपस्वी भौतिकवादी संसार के गृहस्थ लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं।
3-दक्षिण केंद्र में दक्षिणकाली प्रसिद्ध है जो देवी का सबसे भयंकर रूप मानी जाती है। यहां दक्षिण दिशा मृत्यु और परिवर्तन को दर्शाती है। यहां वैतरणी नदी बहती है। यह नदी जीवित लोगों की भूमि को मृतकों की भूमि से अलग करती है।
4-हिंदू गांवों में दक्षिण दिशा में शमशान भूमि का होना आम बात है। यहां मृतकों के शरीर को भी दक्षिण दिशा की ओर रखा जाता है।शिव के कई रूप हैं लेकिन इस रूप में शिव के गले के चारो ओर एक सर्प लिपटा हुआ है और जटाओं के उपर एक चांद है। उनकी दाहिनी तरफ पुरुष की और बाईं ओर स्त्री की बाली है।
5-यह स्वरूप तीन स्तरों को बतलाता है। पहला पौरुष और स्त्रीत्व रूप, दूसरा मन और भौतिकता और तीसरा नाम और रूपों के संसार के साथ अज्ञात और निराकार दुनिया। दक्षिणमूर्ति का बायां हाथ वरद मुद्रा को दर्शाता है जो दान की मुद्रा है। उनके दाहिने हाथ की मुद्रा में उनकी तर्जनी अंगुली अंगुठे को छूती दिखाई गई है जो ज्ञान या पांडित्य को दर्शाता है। यह मुद्रा उन्हें एक गुरु के रूप में भी दिखलाता है जो ज्ञान देते हैं।
6- उनके दो और हाथ दिखाए गये हैं। उनके संकेत अलग-अलग हैं लेकिन वो सभी पांडित्य को दर्शाते हैं। यह एक ईंधनविहीन ताप की आग है या ध्यान का अभ्यास है, जो ज्ञान को दर्शाता है और उन सभी गांठों को जला देता है जो मन को विस्तृत होने से रोकते हैं। उनकी जटा मे लिपटा सांप ज्ञान की जगमगाहट को दर्शाता है और संसार में लिप्त होने के बजाय यह इसकी उत्पत्ति के गवाहों में से एक है।
7-उनके पास मनकों की एक माला है जिसका उपयोग जाप करने और यादाश्त के लिए किया जाता है। उनके पास कई वाद्ययंत्र और किताबें हैं। उनके दाहिने पैर के नीचे अपस्मार नाम का एक राक्षस है जिसे विकृत यादों का राक्षस माना गया है और जो हमारे मन को अनंतता की ओर विस्तृत होने से रोकता है।
8-शिव अपना बायां पैर अपनी दाहिनी जांघ पर रखते हैं। पारंपरिक रूप से शरीर का बायां हिस्सा प्रकृति को दर्शाता है और दायां हिस्सा पुरुष को। नटराज की मूर्ति के अनुसार शिव अपने दाएं पैर को जमीन पर रखे हुए हैं और उनका बायां पैर या तो हवा में है या दाईं जांघ पर।
इस छवि के विपरीत श्रीकृष्ण हमेशा अपने बाएं पैर पर आराम करते हैं या दायें पैर को बायें पैर के उपर रखते हैं। श्रीकृष्ण भौतिकता का आनंद लेते हैं पर वह इसमें ज्ञान को भी समाहित करते हैं। जब श्रीकृष्ण के दोनों पैर जमीन पर होते हैं तो इसका अर्थ है कि वो भौतिकता और ज्ञान दोनों को महत्ता देते हैं।
9-शिव भौतिकता के उपर ज्ञान को महत्ता देते हैं, इसलिये उनका केवल एक पैर जमीन पर होता है और इस कारण उन्हें एकपद यानि कि एक पैर वाला भगवान कहा जाता है। इस प्रकार सांकेतिक रूप से यह रूप ज्ञान के कई प्रकारों को बतलाता है जैसे कि, भौतिकवाद की उथल-पुथल जो दुख का कारण बनती है और उस विचलित मन को स्थिर करने का ज्ञान।
10-शिव के चरणों में कई संत बैठते हैं। शिव कभी-कभी उनलोगों को वेद और तंत्र का रहस्य बतलाते हैं। यह प्रवचन अगम या पौराणिक मंदिर परंपरा कहलाती है और यह निगम या वैदिक अनुष्ठान परंपरा का पूरक है। यह प्रवचन दक्षिणमूर्ति उपनिषद भी कहलाता है। शिव का यह रूप उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत की परंपराओं में अधिक लोकप्रिय है। कहानी के अनुसार सभी साधू शिव के प्रवचन को सुनने के लिए उत्तर की ओर गये और इस कारण पृथ्वी उनके बोझ से एक ओर झुक गया।
11-धरती को संतुलित करने के लिए शिव ने अपने शिष्य अगस्त्य को दक्षिण की ओर यात्रा करने को कहा। यही कारण है कि अगस्त्य दक्षिण के महान साधुओं में गिने जाते हैं। जिन साधुओं ने प्रवचन सुना, उन्होंने शिव से व्याघ्रपद का दान मांगा ताकि वो आसानी से उनकी पूजा के लिए जंगल से फूल इकठ्ठा कर सकें।
12-आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता, मूर्तिपूजा के पुरस्कर्ता, पंचायतन पूजा के प्रवर्तक है।उन्होंने दक्षिणमूर्ति स्त्रोतम की रचना की जिसमें उन्होंने महसूस किया कि किस प्रकार खामोश दिखने वाला यह युवा शिक्षक अपने ज्ञान से बूढ़े साधुओं को प्रकाशित करता है।
13- शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में उन्होंने शिव से शादी कर ली और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से साधुओं के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया।
14-तंत्र में इसी प्रकार यह संवाद दिखाया गया है। अगर वो काल यानि समय हैं तो वो काली हैं जो समय को अपने अधीन रखती हैं। यह वो ही हैं जो शव को शिव बनाती हैं। यह देवी ही हैं जो दक्षिण से हैं, जो भौतिकता और परिवर्तन को मूर्त रूप देती हैं और जवाबों को प्रेरित करती हैं। जवाब केवल बोलकर ही नहीं दिए जाते हैं बल्कि इन्हें नृत्य या गीतों के द्वारा भी दर्शाया जाता है।
इसलिये भारतीय शास्त्रीय नृत्य इतना समृद्ध है।
15-यूं तो भगवान शंकर के कई रहस्य है, लेकिन यहां मात्र पांच रहस्यों के बारे में बताया जा रहा हैं ...
1. शिव धनुष पिनाक को उठाना असंभव था लेकिन राम ने तोड़ दिया। शिवजी ने दो चक्र बनाए- एक भवरेंदु और दूसरा सुदर्शन।पाशुपतास्त्र और त्रिशूल का निर्माण भी उन्होंने किया था।
2. शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
3. शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। ऋषि अगस्त्य उनमें प्रमुख थे।
4. शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं।
5. सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं। पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है।
क्या है शिव की वेशभूषा /शिव प्रतीकों के पीछे का रहस्य?
1-आपने भगवान शंकर का चित्र या मूर्ति देखी होगी। शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक चन्द्र चिह्न होता है। उनके मस्तक पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू, तो दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं। इन सब शिव प्रतीकों के पीछे रहस्य है। शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। जानते हैं शिव प्रतीकों के रहस्य...
1-चन्द्रमा :- शिव का एक नाम 'सोम' भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। उनका दिन सोमवार है। चन्द्रमा मन का कारक है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है।
2-चन्द्र कला का महत्व : मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चान्द्रमास पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है।
3-कई धर्मों का प्रतीक चिह्न : यह अर्द्धचन्द्र शैवपंथियों और चन्द्रवंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस अर्धचंद्र का ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है।
4-चन्द्रदेव से संबंध : भगवान शिव के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के बारे में मान्यता है कि भगवान शिव द्वारा सोम अर्थात चन्द्रमा के श्राप का निवारण करने के कारण यहां चन्द्रमा ने शिवलिंग की स्थापना की थी। इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम 'सोमनाथ' प्रचलित हुआ।
2-त्रिशूल :- भगवान शिव के पास हमेशा एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था। इसकी शक्ति के आगे कोई भी शक्ति ठहर नहीं सकती।त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक भी है। 2-इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन।त्रिशूल के 3 शूल सृष्टि के क्रमशः उदय, संरक्षण और लयीभूत होने का प्रतिनिधित्व करते भी हैं। शैव मतानुसार शिव इन तीनों भूमिकाओं के अधिपति हैं।
3-यह शैव सिद्धांत के पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधित्व करता है।माना जाता है कि यह महाकालेश्वर के 3 कालों (वर्तमान, भूत, भविष्य) का प्रतीक भी है। इसके अलावा यह स्वपिंड, ब्रह्मांड और शक्ति का परम पद से एकत्व स्थापित होने का प्रतीक है। यह वाम भाग में स्थिर इड़ा, दक्षिण भाग में स्थित पिंगला तथा मध्य देश में स्थित सुषुम्ना नाड़ियों का भी प्रतीक है।
3-शिव का सेवक वासुकि :- शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नाग कुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। भगवान शिव के नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से स्पष्ट है कि नागों के ईश्वर होने के कारण शिव का नाग या सर्प से अटूट संबंध है।
2-भारत में नागपंचमी पर नागों की पूजा की परंपरा है।विरोधी भावों में सामंजस्य स्थापित करने वाले शिव नाग या सर्प जैसे क्रूर एवं भयानक जीव को अपने गले का हार बना लेते हैं। लिपटा हुआ नाग या सर्प जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है।
3-नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकि, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है, तो निश्चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे।
4-नाग वंशावलियों में 'शेषनाग' को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकि हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकि का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।
5-उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कंबल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
4-डमरू :- सभी हिन्दू देवी और देवताओं के पास एक न एक वाद्य यंत्र रहता है। उसी तरह भगवान के पास डमरू था, जो नाद का प्रतीक है। भगवान शिव को संगीत का जनक भी माना जाता है। उनके पहले कोई भी नाचना, गाना और बजाना नहीं जानता था।
2-भगवान शिव दो तरह से नृत्य करते हैं- एक तांडव जिसमें उनके पास डमरू नहीं होता और जब वे डमरू बजाते हैं तो आनंद पैदा होता है।अब बात करते हैं नाद की। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि, जो ब्रह्मांड में निरंतर जारी है जिसे 'ॐ' कहा जाता है। संगीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके बीच विद्यमान केंद्रीय स्वर नाद है।
3-नाद से ही वाणी के चारों रूपों की उत्पत्ति मानी जाती है-
1. पर, 2. पश्यंती, 3. मध्यमा और 4. वैखरी।
4-आहत नाद का नहीं अपितु अनाहत नाद का विषय है। बिना किसी आघात के उत्पन्न चिदानंद, अखंड, अगम एवं अलख रूप सूक्ष्म ध्वनियों का प्रस्फुटन अनाहत या अनहद नाद है।
5-इस अनाहत नाद का दिव्य संगीत सुनने से गुप्त मानसिक शक्तियां प्रकट हो जाती हैं। नाद पर ध्यान की एकाग्रता से धीरे-धीरे समाधि लगने लगती है। डमरू इसी नाद-साधना का प्रतीक है। .
5-शिव का वाहन वृषभ : -वृषभ शिव का वाहन है। वे हमेशा शिव के साथ रहते हैं। वृषभ का अर्थ ..धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को 4 पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके 4 पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।
2-एक मान्यता के अनुसार वृषभ को नंदी भी कहा जाता है, जो शिव के एक गण हैं। नंदी ने ही धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना की थी।
6-जटाएं :- शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।
7- माँ गंगा :- माँ गंगा को जटा में धारण करने के कारण ही शिव को जल चढ़ाए जाने की प्रथा शुरू हुई। जब स्वर्ग से माँ गंगा को धरती पर उतारने का उपक्रम हुआ तो यह भी सवाल उठा कि माँ गंगा के इस अपार वेग से धरती में विशालकाय छिद्र हो सकता है, तब माँ गंगा पाताल में समा जाएगी।ऐसे में इस समाधान के लिए भगवान शिव ने माँ गंगा को सर्वप्रथम अपनी जटा में विराजमान किया और फिर उसे धरती पर उतारा।गंगोत्री तीर्थ इसी घटना का गवाह है।
8-भभूत या भस्म :- शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है।
2-यज्ञ की भस्म में वैसे कई आयुर्वेदिक गुण होते हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, तब केवल भस्म (राख) ही शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती है।
9-तीन नेत्र :- शिव को 'त्रिलोचन' कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेकिन बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास होगा।
2-संसार और संन्यास :-शिव का यह नेत्र आधा खुला और आधा बंद है। यह इसी बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की जिम्मेदारियों को निभा सकता है।
3-त्र्यंबकेश्वर :-त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के व्युत्पत्यर्थ के संबंध में मान्यता है कि तीन नेत्रों वाले शिवशंभू के यहां विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्र) के ईश्वर कहा जाता है।
4-पीनिअल ग्लैंड : आध्यात्मिक दृष्टि से कुंडलिनी जागरण में एक चक्र को भेदने के बाद जब षट्चक्र पूर्ण हो जाता है तो इसके बाद आत्मा का तीसरा नेत्र मलशून्य हो जाता है। वह स्वच्छ और प्रसन्न हो जाता है। शिव के तीसरे नेत्र को प्रमस्तिष्क (सेरिब्रम) की पीयूष-ग्रंथि (पीनिअल ग्लैंड) माना जाता है। पीयूष-ग्रंथि उन सभी ग्रंथियों पर नियंत्रण रखती है जिनसे उसका संबंध होता है।
10-हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म :- शिव अपनी देह पर हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म को धारण करते हैं। हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर। हस्ती अभिमान का और व्याघ्र हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है।
11-शिव का धनुष पिनाक :- शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था।
2-देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज को सौंप दिया गया था।उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
3-देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज को धनुष दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।
12-शिव का चक्र :- 1-चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था।
2-सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था।
3-जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। देवी पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।भगवान शिव ने दिया था सुदर्शन चक्र- भगवान विष्णु के हाथों में हमेशा सुदर्शन चक्र सुशोभित रहता है. यह सुदर्शन चक्र भगवान शिव ने ही भगवान विष्णु को दिया था.
4-एक बार भगवान विष्णु शिव की आराधना कर रहे थे. विष्णु देवता ने भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए हजारों कमल बिछा रखे थे. भगवान शिव यह देखना चाहते थे कि भगवान विष्णु की भक्ति में कितनी तत्परता है. इसलिए उन्होंने एक कमल उठा लिया।
5-भगवान विष्णु सहस्त्रनाम लेते हुए शिवलिंग पर हर बार कमल का फूल चढ़ा रहे थे. जब विष्णु 1000वां नाम ले रहे थे तो उन्होंने पाया कि शिवलिंग पर अर्पित करने के लिए कोई भी फूल शेष नहीं रह गया है. तब भगवान विष्णु ने अपनी आंख निकालकर शिव को अर्पित कर दी. भगवान विष्णु को कमलनयन कहा गया है इसलिए कमल के फूल के बजाए उन्होंने अपना नेत्र अर्पित कर दिया. अटूट भक्ति देखकर भगवान शिव ने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र भेंट किया।
13-त्रिपुंड तिलक :- माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी है। यह त्रिपुंड सफेद चंदन का या भस्म का होता है।त्रिपुंड दो प्रकार का होता है- पहला तीन धारियों के बीच लाल रंग का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा होता है सिर्फ तीन धारियों वाला तिलक या त्रिपुंड। इससे मन एकाग्र होता है।
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क्या है दक्षिणामूर्ति स्तोत्रं? -
07 FACTS;-
1-भगवान शिव सृष्टि के आद्य गुरु हैं। उनके भिन्न - भिन्न रूपों की साधना भक्त करते हैं। भक्तों को शिव आराधना से आत्म तृप्ति प्राप्त होती है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय मानस भगवान् शिव को पूजता रहा है। शिव की दयालुता, उनके समान करुणावरुणालय कौन है? "शिव समान दाता नहीं" कहकर कवियों ने उनकी उदारता को प्रकट किया है।
2-राष्ट्र के सुदूर प्रान्तों में अपने द्वादश जोतिर्लिंग के रूप में विराजमान भगवान् शिव लोक चेतना को ऊर्जा संपन्न करते रहते हैं। दक्षिणामूर्ति स्वरुप भगवान के कैलाश पर्वत पर आसन लगाये हुए स्वरुप का है। उनका मुख दक्षिण की और है। दक्षिणमुखी होकर वह शिष्यों (ऋषियों,मुनियों) को ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर भगवान् शिव युवा हैं और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है कि आत्म ज्ञान सदा तरो ताजा रहता है।
3-भगवान शिव की इस मुद्रा की, अपने दस श्लोकों में, आद्य जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य ने स्तुति की है।दक्षिणामूर्ति स्तोत्र अदिशंकर का अद्वेSत वेदान्त की उत्कृष्ट शिक्षा संबंधी अदभुद् स्तोत्र है। इसमें ज्ञान के अमूर्त विज्ञान को जैसे वेद वाक्य और गुरु उपदेशों के प्रचलित पदों में उड़ेल दिया गया है ।
4-वस्तुतः यह एक शिव आराधना स्तोत्र है । दक्षिणामूर्ति में दो शब्द- दक्षिणा और मूर्ति एक सामासिक प्रयोग हैं इसका आशय होता है- जिनकी मूर्ति दक्षिण की ओर अभिमुख है ।मृत्यु रूपी दक्षिण दिशा की ओर अभिमुखता भगवान शिव के कालातीत महाकालत्व की परिचायक है।
5-इस स्तोत्र के संबंध में पौराणिक गाथा इस प्रकार कही जाती है । ब्रह्माजी के चार मानस पुत्र थे- सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार । वे जन्मना ही सिद्ध और तत्वज्ञान युक्त थे । उन्होंने अल्प आयु में ही ज्ञान की खोज में ब्रह्म लोक का त्याग कर दिया । उनकी यह खोज दीर्घकाल तक चलती रही । अन्ततः जब उन्हें गुरु की प्राप्ति हुई तो वे आयु वृद्ध हो चुके थे । वे अन्त में भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर पहंचे।
6-अजन्मा शिव स्वभावतः युवा हैं । वे एक वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं । ये आयु वृद्ध शिष्य ही मौन परमगुरु शिव से यहां ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार ये चार वृद्ध शिष्य स्वयं चार वेद ही हैं ।
उनके मस्तक का तिलक उनके तृतीय नेत्र को दर्शाता है । उनके हाथ की रुद्राक्ष माला उनकी चिरन्तन साधनावस्था की परिचायक है । उनका त्रिशूल उनकी गुणातीत स्थिति का दिग्दर्शक है।
7-भगवान दक्षिणामूर्ति के निचले बायें हाथ में भोजपत्र में लिखे गये वेद हैं। उनका दायां निचला हाथ अभय चिन्मुद्रा में है।उनके हाथ की तर्जनी आत्म स्वरूप का संकेत कर रही है। अंगुष्ठ ब्रह्म तत्व का वोध कराता है । दक्षिणामूर्ति भगवान का दायां पांव बायें पांव के नीचे है । उनके चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है । यह विस्मृति का प्रतीक है ।
इस स्तोत्र के अनुष्ठान परक पाठ को आवश्यक व्याख्या सहित नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है ।
दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् (मूल संस्कृत,हिंदी भावानुवाद)
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरी तुल्यं निजान्तर्गतम्,
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥
यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है (अर्थात् अवास्तविक है), स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है। जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा एक (बिना दूसरे के) है उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१॥
बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं पुन-
र्मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम्।
मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥२॥
बीज के अन्दर स्थित अंकुर की तरह पूर्व में निर्विकल्प इस जगत, जो बाद में पुनः माया से भांति - भांति के स्थान, समय , विकारों से चित्रित किया हुआ है, को जो किसी मायावी जैसे, महायोग से, स्वेच्छा से उद्घाटित करते हैं , उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥२॥
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान्।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥३॥
जिनकी प्रेरणा से सत्य आत्म तत्त्व और उसके असत्य कल्पित अर्थ का ज्ञान हो जाता है, जो अपने आश्रितों को वेदों में कहे हुए 'तत्त्वमसि' का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं, जिनके साक्षात्कार के बिना इस भव-सागर से पार पाना संभव नहीं होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥३॥
नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथ-महादीपप्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते।
जानामीति तमेव भांतमनु-भात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥४॥
अनेक छिद्रों वाले घड़े में रक्खे हुए बड़े दीपक के प्रकाश के समान जो ज्ञान आँख आदि इन्द्रियों द्वारा बाहर स्पंदित होता है, जिनकी कृपा से मैं यह जानता हूँ कि उस प्रकाश से ही यह सारा संसार प्रकाशित होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥४॥
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वह-मिति भ्रान्ता भृशं वादिनः।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥५॥
स्त्रियों, बच्चों, अंधों और मूढ के समान, देह, प्राण, इन्द्रियों, चलायमान बुद्धि और शून्य को 'मैं यह ही हूँ' बोलने वाले मोहित हैं। जो माया की शक्ति के खेल से निर्मित इस महान व्याकुलता का अंत करने वाले हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥५॥
राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात्
संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान्।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६॥
राहु से ग्रसित सूर्य और चन्द्र के समान, माया से सब प्रकार से ढँका होने के कारण, करणों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥६॥
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानम-हमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥७॥
बचपन आदि शारीरिक अवस्थाओं, जागृत आदि मानसिक अवस्थाओं और अन्य सभी अवस्थाओं में विद्यमान और उनसे वियुक्त (अलग), सदा मैं यह हूँ की स्फुरणा करने वाले अपने आत्मा को स्मरण करने पर जो प्रसन्नता एवं सुन्दरता से प्रकट कर देते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥७॥
विश्वं पश्यति कार्यकारण-तया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥८॥
स्वयं के विभिन्न रूपों में जो विश्व को कार्य और कारण सम्बन्ध से, अपने और स्वामी के सम्बन्ध से, गुरु और शिष्य सम्बन्ध से और पिता एवं पुत्र आदि के सम्बन्ध से देखता है, स्वप्न और जागृति में जो यह पुरुष जिनकी माया द्वारा घुमाया जाता सा लगता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥८॥
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बर-महर्नाथो हिमांशुः पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो-
स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥९॥
जो भी इस स्थिर और गतिशील जगत में दिखाई देता है, वह जिसके भूमि, जल, अग्नि, वायु , आकाश, सूर्य, चन्द्र और पुरुष आदि आठ रूपों में से है, विचार करने पर जिससे परे कुछ और विद्यमान नहीं है, सर्वव्यापक, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥९॥
सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमन-नाद्धयानाच्च संकीर्तनात्।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम् चैश्वर्यमव्याहतम्॥१०॥
सबके आत्मा आप ही हैं, जिनकी स्तुति से यह ज्ञान हो जाता है, जिनके बारे में सुनने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से सबके आत्मारूप आप समस्त विभूतियों सहित ईश्वर स्वयं प्रकट हो जाते हैं और अपने अप्रतिहत (जिसको रोका न जा सके) ऐश्वर्य से जो पुनः आठ रूपों में प्रकट हो जाते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१०॥
ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र सिद्धिविनायक ज्योतिष एवं वास्तु अनुसंधान केंद्र विभव खंड 2 गोमती नगर एवं वेदराज कांप्लेक्स पुराना आरटीओ चौराहा लाटूश रोड लखनऊ 94150 87711 923 572 2996
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