श्रीराम के ये 5 गुण अपना लिए तो जीवन में फिर किसी संकट से भय नहीं होगा..
Jyotish Acharya Dr Umashankar Mishra 941 5087 711
भगवान राम विषम परिस्थितियों में भी नीति सम्मत रहे। उन्होंने वेदों और मर्यादा का पालन करते हुए सुखी राज्य की स्थापना की। स्वयं की भावना व सुखों से समझौता कर न्याय और सत्य का साथ दिया। फिर चाहे राज्य त्यागने, बाली का वध करने, रावण का संहार करने या सीता को वन भेजने की बात ही क्यों न हो। जानिए भगवान राम के 5 ऐसे गुण जिनकी वजह से वे जीवन में सफल माने गए...
सहनशील व धैर्यवान
सहनशीलता व धैर्य भगवान राम का विशेष गुण है। कैकेयी की आज्ञा से वन में 14 वर्ष बिताना, समुद्र पर सेतु बनाने के लिए तपस्या करना, सीता को त्यागने के बाद राजा होते हुए भी संन्यासी की भांति जीवन बिताना उनकी सहनशीलता की पराकाष्ठा है।
दयालु व स्वामी
भगवान राम ने दया कर सभी को अपनी छत्रछाया में लिया। उनकी सेना में पशु, मानव व दानव सभी थे और उन्होंने सभी को आगे बढ़ने का मौका दिया। सुग्रीव को राज्य, हनुमान, जाम्बवंत व नल-नील को भी उन्होंने समय-समय पर नेतृत्व करने का अधिकार दिया।
मित्रता
केवट हो या सुग्रीव, निषादराज या विभीषण। हर जाति, हर वर्ग के मित्रों के साथ भगवान राम ने दिल से करीबी रिश्ता निभाया। दोस्तों के लिए भी उन्होंने स्वयं कई संकट झेले।
उत्तम प्रबंधक
भगवान राम न केवल कुशल प्रबंधक थे, बल्कि सभी को साथ लेकर चलने वाले थे। वे सभी को विकास का अवसर देते थे व उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करते थे। उनके इसी गुण की वजह से लंका जाने के लिए उन्होंने व उनकी सेना ने पत्थरों का सेतु बना लिया था।
आदर्श भाई
भगवान राम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न सौतेली मां के पुत्र थे, लेकिन उन्होंने सभी भाइयों के प्रति सगे भाई से बढ़कर त्याग और समर्पण का भाव रखा और स्नेह दिया। यही वजह थी कि भगवान राम के वनवास के समय लक्ष्मण उनके साथ वन गए और राम की अनुपस्थिति में राजपाट मिलने के बावजूद भरत ने भगवान राम के मूल्यों को ध्यान में रखकर सिंहासन पर रामजी की चरण पादुका रख जनता को न्याय दिलाया।
भरत के लिए आदर्श भाई, हनुमान के लिए स्वामी, प्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजा, सुग्रीव व केवट के परम मित्र और सेना को साथ लेकर चलने वाले व्यक्तित्व के रूप में भगवान राम को पहचाना जाता है। उनके इन्हीं गुणों के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से पूजा जाता है। सही भी है, किसी के गुण व कर्म ही उसकी पहचान बनाते हैं।।
"भगवान् शरणागत भक्त को अपना मालिक बना लेते हैं।" अगर कोई नौकर काम को बड़ी तत्परता, चतुरता और उत्साह से करता है, पर करता है केवल मालिक की प्रसन्नता के लिये तो मालिक उसको मजदूरी से अधिक पैसे भी दे देता है और तत्परता आदि गुणों को देखकर उसको अपने हिस्सेदार भी बना देता है।
ऐसे ही भगवान् मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार फल देते हैं। अगर कोई मनुष्य भगवान् की आज्ञा के अनुसार, उन्हीं की प्रसन्नता के लिये सब कार्य करता है, उसे भगवान् दूसरों की अपेक्षा अधिक ही देते हैं; परन्तु जो भगवान् के सर्वथा समर्पित होकर सब कार्य करता है, उस भक्त के भगवान् भी भक्त बन जाते हैं। संसार में कोई भी नौकर को अपना मालिक नहीं बनाता; परन्तु भगवान शरणागत भक्त को अपना मालिक बना लेते हैं। ऐसी उदारता केवल प्रभु में ही है।
ऐसे प्रभु के चरणों की शरण न होकर जो मनुष्य प्राकृत उत्पति विनाशशील पदार्थों के पराधीन रहते हैं, उनकी बुध्दि सर्वथा ही भ्रष्ट हो चुकी है। वे इस बात को समझ ही नहीं सकते कि हमारे सामने प्रत्यक्ष उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ हमें कहाँ तक सहारा दे सकते हैं।
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः।
*वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा।।
हाथों में गदा और अभय मुद्रा धारण करने वाले, प्राणो के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकर जी वायव्यकोण में सदा संपूर्ण विश्व की रक्षा करें।
*👉स्वभावेन हि तुष्यन्ति
*देवाः सत्पुरुषाः पिता।
*ज्ञातयः स्वन्नपानाभ्यां
*वाक्यदानेन पण्डिताः॥
*सद्व्यवहार और उत्तम स्वभाव का महत्व बताते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि देवता , सज्जन और पिता — ये सब स्वभाव से ही सन्तुष्ट होते हैं। इसी प्रकार मित्रों, बन्धु-बान्धव उत्तम खान-पान और विद्वान लोग मृदु वाणी से प्रसन्न होते हैं। अर्थात् श्रेष्ठ स्वभाव और मधुर वाणी से युक्त मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं होता।
साक्षात् योगेश्वर अर्थात् योगियोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
हे अर्जुन! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसीको तू योग जान; क्योंकि संकल्पोंका त्याग न करनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।
जो पुरुष कर्मफलका आश्रय न लेकर करनेयोग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्निका त्याग (अर्थात् बल और क्रोधका त्याग) करनेवाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं है।।
योगमें आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील पुरुषके लिये योगकी प्राप्तिमें निष्कामभावसे कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जानेपर उस योगारूढ़ पुरुषका जो सर्वसंकल्पोंका अभाव है, वही कल्याणमें हेतु कहा जाता है।।
जिस कालमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस कालमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।।
सरदी-गरमी और सुख-दुःखादिमें तथा मान और अपमानमें जिसके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ भलीभाँति शान्त हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुषके ज्ञानमें सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् प्रकारसे स्थित है अर्थात् उसके ज्ञानमें परमात्माके सिवा कुछ है ही नहीं।।
परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता।।
यह स्थिर न रहनेवाला और चञ्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस-उस विषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे।।
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है।।
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत (जैसे आकाशसे उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होनेसे सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान।) देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।।
जो पुरुष एकीभावसे स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।।
हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादिके साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकोंका-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात् अपनापन समान होनेसे सुख और दुःखको समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतोंमें देखना 'अपनी भाँति' सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।।
जिसको हम सदा अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से क्या लाभ? मानव जीवन एक अनमोल अवसर है।
जो दोष व्यक्ति में बाहर से आता है, उसे बाहर भी किया जा सकता है। आज की सबसे बड़ी समस्या है कि कोई भी व्यक्ति दूसरों की बात नहीं सुनना ही नहीं चाहता।
! जय महादेव_!!: शिवाकान्त शम्भो शशाङ्कार्धमौले
*महेशान शूलिन् जटाजूटधारिन् ।नमस्ते विभो विश्वमूर्ते सुमूर्ते
भवानीपते ते शिवं ।
परमात्मा” के निर्णय पर मनुष्य को कभी संदेह नहीं करना चाहिये। जीवन में यदि दंड मिल रहा है तो अपराध भी अवश्य किये होंगे और मान-सम्मान मिल रहा है तो अच्छे कर्म भी अवश्य किये होंगे।
प्रकृति सभी के समान रहती है और अपने नियम से ही चलती है।
रामचरितमानस में बालि जब भगवान राम से कहता है कि प्रभो ! अंतकाल में आपकी शरण पाकर अब भी क्या में पापी रहा ? तो भगवान गद गद हो जाते हैं और अपना वरद हस्त उसके सिर पर रख कर उसे अपने परम धाम में भेज देते है | जीव भगवान की शरण लेते ही उनकी कृपा का पात्र बन जाता है |
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो
आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान असावधानी है ।
प्रहलादजी अपने पिता हिरण्यकशिपु से परम आत्मा की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं -
जो लोग अपना सर्वस्व लूटनेवाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओंपर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियोंके प्रति समताका भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञानसे पैदा होनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहरके शत्रु तो रहें ही कैसे।। (श्रीमद्भागवत ७/८/११)
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय
*देवन्ह समाचार सब पाए।
ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए*।।
सब सुर बिष्नु बिरंची समेता।
गए जहां सिव कृपानिकेता।।
जरा स्मरण करें कि जब देवता गण तारकासुर से हार गए थे और उसके आतंक से मुक्ति के उपाय पूछने ब्रह्मा जी के पास गए थे तो ब्रह्मा जी क्या कहे थे?
ब्रह्मा जी कहे थे कि शिव जी के तेज से उत्पन्न संतान ही तारकासुर का वध कर सकते हैं... संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोई।
और अभी शिव जी की पत्नी नहीं हैं तथा शिव जी समाधि में लीन हैं अतः आपलोग कामदेव को भेज कर उनकी समाधि भंग करें...
मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईश्वर करिहि सहाई।।
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा।।
तेहि तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सब त्यागी।।
जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी।।
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं।।
और जब कामदेव शिव जी के मन में क्षोभ उत्पन्न करेंगे और शिव जी की समाधि भंग होगी तो मैं शिव जी के पास जाकर उनसे विनती कर जबरदस्ती विवाह कराऊंगा...
* तब हम जाइ* सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई।।
परन्तु अब ब्रह्मा जी सीधे शिव जी के पास न जाकर वैकुंठ पति श्री हरि विष्णु जी के पास जाते हैं...
ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।
अर्थात् शिव जी के क्रोध स्मरण कर उनके पास जाने के लिए न तो देवताओं को साहस है और न ब्रह्मा जी को ही इसलिए एक अच्छे पैरवी वाले को पकड़ते हैं।
शिव जी को श्री हरि विष्णु जी से अच्छी पटती है क्योंकि शिव जी श्री हरि के व्यंग्य वचन को भी बहुत महत्व देते हैं....
बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज।।
बर अनुहारि बरात न भाई....
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे
अर्थात् श्री हरि विष्णु जी शंकर जी को प्रिय हैं इसलिए सभी पैरवी तंत्र का उपयोग करते हैं।
देवताओं ने ब्रह्मा जी को पकड़ा और ब्रह्मा जी श्री हरि विष्णु जी को और इस प्रकार से स्वार्थी देवताओं का कार्य सिद्ध होता है।
(चूंकि हम भी स्वार्थी हैं इसलिए मुझे ईश्वर प्राप्ति के, ईश्वर से अपने कार्य कराने के लिए , स्वकीय कल्याण हेतु यह सूत्र अच्छा लगा। चूंकि अपनी उतनी ऊंची पहुंच नहीं है, हम विषय भोग में लगे रहते हैं अतः कोई न कोई माध्यम पकड़ना ही पड़ेगा।)
🙏🙏🙏
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम
: भगवान् उस सर्वोच्च शक्ति-सत्ता का नाम है जिसमें यह ब्रम्हाण्ड रहता है-
तीन शब्द प्रचलन में हैं --- भगवान् सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और सर्वव्यापक है । जहाँ तक सर्वव्यापक का सवाल है, इस पर लोगों को बहुत बड़ा भ्रम छाया हुआ है । हमारे तथाकथित भगवान् जी लोगों को, तथाकथित सद्गुरुजी लोगों को--गुरु जी लोगों को, सारे के सारे उपदेशक बन्धुओं को इस विषय पर भ्रम छाया हुआ है । उनको जानने-समझने का प्रयास करना चाहिए कि भगवान् का सर्वव्यापकत्व किस रूप में है? भगवान् का सर्वव्यापकत्व रूप जो है ऐसा नहीं है कि वो कण-कण में है, ऐसा नहीं है कि वो सब में है, ऐसा नहीं है कि वो सब जगह है । उसके व्यापकत्व की जो बातें कही गयी हैं वो इस रूप में कि भगवान् सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड को घेर करके स्थित है अर्थात् ये जो ब्रम्हाण्ड है इसमें भगवान् नहीं होता बल्कि यह ब्रम्हाण्ड भगवान् में होता है । यानी ब्रम्हाण्ड में भगवान् नहीं होता केवल अवतार बेला में भगवान् इस ब्रम्हाण्ड में अवतरित होता है - आता है । ''भगवान् उस सर्वोच्च शक्ति-सत्ता का नाम है जिसमें यह ब्रम्हाण्ड रहता है।'' यह केवल मेरी बात नहीं है ये आपके ऋग्वेद की है, यजुर्वेद की है, ये अथर्व वेद की बात है । यजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद में भी देखेंगे उसमें भी है गीता में भी है, पुराण में है, बाइबिल में है, कुर्आन में है । किस ग्रन्थ में नहीं है ? भगवान् ब्रम्हाण्ड में ही नहीं रहता तो फिर सबमें कैसे रहने लगा ? हर कण-कण में कैसे रहने लगा ? ये बातें कि सबमें भगवान् है, ये बातें कि कण-कण में भगवान् है ये तो अवतार के प्रति घोर अपमान है । ये तो अवतार को सीधे नकारना है, भगवत्ता के अस्तित्तव को, भगवान् के अवतरण प्रक्रिया को सीधे नकारना है । और ऐसा सीधे कहा जाए कि ऐसा कुकर्म कौन कर सकता है ? जो एक अधर्मी होगा । भगवान् के अस्तित्व को जो नकार देंगे तो धर्म कहाँ रह जाएगा ? एक भगवान् के अस्तित्व को नकार दें, ये तो परम सत्य के अस्तित्व को नकारना होगा । भगवान् कोई वस्तु नहीं है, भगवान् कोई व्यक्ति नहीं है, भगवान् कोई शरीर मात्र नहीं है । भगवान् तो एक परम शक्ति-सत्ता है, भगवान् एक परम सत्य है । उस परम सत्य के अस्तित्व को कैसे नकारा जा सकता है ?
जिसको हम हृदय से महत्त्व देते हैं उसका सहज चिंतन स्मरण बना रहता है। जैसे संसार को महत्त्व देते हैं, इसलिए संसार का सहज स्मरण चिंतन बना रहता है। लेकिन भगवान का उनका चिंतन स्मरण प्रयासपूर्वक करना पड़ता है। उनका चिंतन स्मरण सहज नही होता, क्योकि अभी भगवान हमारे लिए महत्त्वपूर्ण नही हुए हैं।
जब भगवद्भक्त, विरक्त सन्तो के संग, उनके मुख से निकलने वाली अमृतमयी कथा, जिस कथा मे भगवान की भक्तवत्सलता, कृपालुता, दयालुता, उदारता, भक्तो के लिए विरह एवं लीला सौंदर्य रूप माधुरी होती है।
उस कथा का श्रवण करेंगे एवं संसार की असारता और अस्थिरता का होशपूर्वक चिंतन करेंगे। तब धीरे धीरे भगवान का महत्त्व हृदय में बढ़ता जायगा और उनका सहज चिंतन स्मरण होने लगेगा।
"मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥"
भावार्थ :- आचार्य चाणक्य जी का कथन है कि मूर्ख शिष्य को उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण-पोषण करने से और दुःखी लोगों की संगत करने से बुद्धिमान व्यक्ति भी कष्ट उठाता है।
"दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥"
अर्थात ;- जिसकी स्त्री दुष्टा हो, मित्र नीच स्वभाव के हों, नौकर जवाब देने वाले हों और जिस घर में साँप रहता हो, ऐसे घर में रहने वाला व्यक्ति निश्चय ही मृत्यु के निकट रहता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति की मृत्यु किसी भी समय हो सकती। उपरोक्त लेख से सुंदर ज्ञान अवश्य सभी लोग ग्रहण करेंगे यही आशा करते हैं।
"व्यवहार" घर का शुभ कलश है।
और "इंसानियत" घर की "तिजोरी"।
"मधुर वाणी" घर की "धन-दौलत" है।
और "शांति" घर की "महा लक्ष्मी"।
"पैसा" घर का "मेहमान" है।
और "एकता" घर की "ममता।
"व्यवस्था" घर की "शोभा" है
और समाधान "सच्चा सुख"।
"न खलः शाम्यते कदा"
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दुर्जनो नार्जवं याति सेव्यमानोऽपि नित्यशः ।
स्वेदनाभ्य़ंजनोपायैः श्र्वपुच्छमिव नामितम् ॥
जैसे कुत्ते की पूंछ स्वेदन, अंजन इत्यादि उपाय से सरल नहीं बनती, वैसे दुष्ट मानव हमेशा सेवा करने के बावजूद सरल नहीं बनता ।
अनिष्टादिष्टलाभेऽपि न गतिर्जायते शुभा ।
यत्रास्ते विषसंसर्गोड्मृतमपि तत्र मृत्यवे ॥
अनिष्ट में से इष्ट लाभ होता हो तो फिर भी अच्छा फ़ल नहीं मिलता, जहाँ विषका संसर्ग हो वहाँ अमृत भी मृत्यु निपजाता है ।
दुर्जन दूषितमनसां पुंसां सुजनेऽप्यविश्र्वासः ।
बालः पायसदग्धो दध्यपि फूल्कृत्य भक्षयति ॥
दुर्जन से जिसका मन दूषित होता है एसा मानव सज्जन पर भी अविश्वास करता है । दूध से जला बालक दहीं भी फ़ूँक कर पीता है
न देवाय न धर्माय न बन्धुभ्यो न चार्थिने ।
दुर्जनेनार्जितं द्रव्यं भुज्यते राजतस्करैः ॥
दुर्जन से मिला हुआ धन देवकार्य में, धर्म में, सगे-संबंधियों या याचक को देने में काम नहीं आता; उसका उपयोग तो राजा और चोर ही करते हैं ।
सर्प क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः ।
मन्त्रेण शाम्यते सर्पः न खलः शाम्यते कदा ॥
सर्प क्रूर है, दुष्ट भी क्रूर है । लेकिन सर्प से दुष्ट ज्यादा क्रूर है । सर्प तो मंत्रसे वश होता है, पर दुष्ट मानव कभी वश नहीं होता ।
खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन् अपि न पश्यति ॥
दुष्ट मानव दूसरे का राई जितना दोष भी देखते हैं, लेकिन खुद के बिल्वफ़ल जितने दोष दिखनेके बावजूद उसे ध्यान पर नहीं लेते ।
पापं वर्धयते चिनोति कुमतिं कीर्त्यंगना नश्यति
धर्मं ध्वंसयते तनोति विपदं सम्पत्तिमुन्मर्दति ।
नीतिं हन्ति विनीतिमत्र कुरुते कोपं धुनीते शमम्
किं वा दुर्जन संगतिं न कुरुते लोकद्वयध्वंसिनी ॥
(दुर्जन की संगति) पाप को बढाती है, कुमति का संचार करती है, कीर्ति का नाश करती है, धर्म का ध्वंस करती है, विपत्ति का विस्तार करती है, संपत्ति का मर्दन करती है, नीति को हरती है, विनीत पर कोप कराती है, शांति को अशांति में परिवर्तित करती है; इसप्रकार दोनों लोक का नाश करनेवाली दुर्जन-संगति क्या नहीं करती ?
दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले ।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ॥
इस पृथ्वी पर दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई उपाय नहीं है । अपान को सौ बार धोने पर भी उसे श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं बनायी जा सकती ।
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाश्र्च मस्तके ।
वृश्र्चिकस्य विषं पृच्छे सर्वांगे दुर्जनस्य तत् ॥
सर्प का जहर दाँत में, मक्खी का मस्तक में और बिच्छू का पूंछ में होता है । लेकिन दुर्जन का झहर तो उसके पूरे अंग में होता है ।
दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्र्चासकारणम् ।
मधु तिष्ठति जिह्याग्रे हदये तु हलाहलम् ॥
दुर्जन प्रियबोलनेवाला हो फिर भी विश्वास करने योग्य नहीं होता क्यों कि चाहे उसकी जबान पर भले ही मधु हो, पर हृदय में तो हलाहल जहर ही भरा होता है ।
न विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः ।
काकः सर्वरसान् भुंक्ते विनाऽमध्यं न तृप्यति ॥
लोगों की निंदा किये बिना दुर्जनों को आनंद नहीं आता । कौए को सब रस भुगतने के बावजुद गंदगी बिना तृप्ति नहीं होती ।
दुर्जनः परिहर्तव्यः विध्ययालंकृतोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः किमसो न भयंकरः ॥
दुर्जन यदि विद्या से अलंकृत हो फ़िर भी उसका त्याग करना चाहिए । मणि से भूषित सर्प क्या भयंकर जहरीला नहीं होता?
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च ।
असतां संप्रयोगेन पण्डितोप्यवसीदति ॥
मूर्ख शिष्य को उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण पोषण करने से, और दुर्जन के संयोग से पंडित भी नष्ट होता है ।
प्रभु शरणागति प्राप्त होने से आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक त्रिताप से मुक्ति मिलती है। शोक मोह से भी जीव छूट जाता है और प्रभु भरपूर आनन्द प्रदान करते है ।
प्रभु जिस जीव को शरण में ले लेते हैं, उसका जीवन धन्य हो जाता है। प्रभु चरणों होना और भी अधिक आनन्द का विषय है। संसार दुखालय है, इसमें सुख कहाँ ? सुख मृगतृष्णा है इसलिए जीव मात्र की छटपटाहट स्वाभाविक है। शरणागति प्राप्त होने से निर्भयता आती है. सभी प्रकार के भय से जीव मुक्त हो जाता है।
🦚 प्रभू के चरणारविन्दो में किसका भय और कैसा भय ? शोक और मोह के जाल में उलझे हुओं को प्रभु भरपूर आनन्द प्रदान करते है। संसार का कोई भी प्राणी शोक और मोह से मुक्ति नहीं दिला सकता । यह सामर्थ्य तो श्री वल्लभ के चरणाविन्दो में ही है जिससे सभी निर्भय व शोक मुक्त हो जाते हैं।
गुस्सा अकेला आता हैं, मगर हमसे सारी अच्छाई ले जाता हैं।*
सब्र भी अकेला आता हैं, मगर हमें सारी अच्छाई दे जाता हैं !! परिस्थितियाँ जब विपरीत होती है, तब व्यक्ति का "प्रभाव और पैसा" नहीं "स्वभाव और सम्बंध" काम आते है। जो ईश्वर के सामने झुकता है....
*ईश्वर उसे किसी के सामने झुकने नही देता है।
मिथ्यात्वेन निषिद्धेषु कोशेष्वेतेषु पञ्चसु।
सर्वाभावं विना किञ्चिन्न पश्याम्यत्र हे गुरो।
विज्ञेयं किमु वस्त्वस्ति स्वात्मनात्र विपश्चिता।।
शिष्य - हे गुरो! इन पाँचों कोशोंको मिथ्यारूपसे निषिद्ध हो जानेपर तो मुझे सर्वाभाव (शून्य)-के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत नहीं होता, फिर [आपके कथनानुसार] बुद्धिमान् पुरुष किस वस्तुको अपना आत्मा माने?
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