"मनुष्य जैसे लोगों के बीच उठता-बैठता है,जैसों की सेवा करता है तथा जैसा बनने की कामना करता है,वैसा ही बन जाता है।"
******** Jyotish Acharya Dr Uma Shankar Mishra 9415 087 711
सज्जनों के साथ रहनेवाला सज्जन बन जाता है,दुर्जनों के साथ रहनेवाला दुर्जन बन जाता है।फिर भी क्या यह सच नहीं कि जिसमें जैसा बीज होता है वह ऐसे ही लोगों के साथ रहना पसंद करता है?सज्जनता, सज्जनों की तरफ आकर्षित होती है,दुर्जनता,दुर्जनों की ओर आकर्षित होती है।
ऐसे कितने हैं जो जल की तरह हैं जिस पात्र में होते हैं वैसा आकार ग्रहण कर लेते हैं,उन्हें पात्र के चुनाव का ध्यान रखना पडता है।नहीं रखते तो वही होता है जैसा ऊपर कहा है।
ये उनके लिये है जिनकी बुद्धि स्थूल है।सूक्ष्म बुद्धि वाले तो यह देखते हैं कि अपने भीतर कौनसे विचार चलते हैं क्योंकि यह भी लोगों की तरह उनके बीच उठना बैठना है।उसका असर पडता ही है।
देखने में लगता है सब तरह के विचार उठते हैं फिर भी किसीमें क्रोध ज्यादा होता है,किसीमें मोह ज्यादा होता है,किसी में चिंता ज्यादा।
जो ज्यादा है, जिसके साथ व्यक्ति है वह भी वैसा ही हो जाता है।वह भी चिंतित,क्रोधित या मोहग्रस्त हो जाता है।जिसके भीतर जो ज्यादा है उससे सावधान रहना चाहिए।वह वहां है और उसकी संगति का असर होता है।
हम कहते हैं विचार तो अपने आप आते हैं हम उन्हें कैसे बदल सकते हैं?तो हमें उनकी संगति में नहीं रहना है।जैसे किसी में चिंता अधिक हो,चिंता होती रहती हो तो उसे चाहिये वह न चिंता का औचित्य-समर्थन करे,न विरोध।दुर्जन से न दोस्ती भली,न दुश्मनी।तटस्थ रहना ही बेहतर है।
उसे चाहिये वह निश्चिंतता का चिंतन करे,निश्चिंतता शब्द का अनुभव कैसा होता है वैसा अनुभव करने की कोशिश करे।
आदमी दूसरे निश्चिंत लोगों को देखकर अपनी चिंता को कोसता है कि क्या करें और लोग निश्चिंत हैं,मुझे चिंता है।
उसे पता नहीं कि उसका चिंता का स्वभाव एक नहीं तो दूसरे में चिंता खोज लेगा।उसका काम ही चिंता करना है।उसका मस्तिष्क एक समस्या का समाधान हुआ तो दूसरी समस्या खोज लेगा।जैसे अतृप्त आदमी की एक इच्छा पूरी हुई तो वह दूसरी इच्छा करने लगता है।उसका कोई अंत नहीं है।उसे चाहिये वह इच्छारहित हो,चिंतारहित हो।वह मैं से हटकर अनुभव पर आये।
"मैं" क्या है?
यह आया कहां से?
मैं माया है,मैं शब्द है,मैं माया के भ्रमजाल से उत्पन्न एक कल्पना है।हर आदमी काल्पनिक मैं से परिचालित होता है।
मैं काल्पनिक है तो दूसरा(व्यक्ति)भी काल्पनिक होगा ही।द्रष्टा भ्रम है तो दृश्य भी भ्रम ही है।
द्रष्टा, दृश्य को देखकर खुश हो रहा है,नाराज हो रहा है।हम उस काल्पनिक द्रष्टा को,मैं को खुश देखकर खुश हो जाते हैं,नाराज देखकर सिकुड जाते हैं लेकिन जो खुश या नाराज है वह कल्पित है।काल्पनिक मैं कर्ता बना बैठा है।है कल्पित मगर उसका भ्रमजाल कितना बडा है।
'उमा कहउं मैं अनुभव अपना।सत हरिभजन जगत सब सपना।।
यह हरिभजन क्या है?
सत्य को जानना ही हरिभजन है।मैं मेरा सपना है या कल्पना है या भ्रम है।
यह कल्पना चिंता करती है।दूसरी कल्पना(दूसरा व्यक्ति)सहानुभूति दर्शाती है।
वह सलाह देती है-निश्चिंतता का अभ्यास करो,उसका चिंतन-उसका अनुभव करो,उसकी पुस्तकें पढो,ऐसे लोगों के सानिध्य में रहो जिनका स्वभाव ही सदा निश्चिंत रहना है।
तो यही करे जबतक सच्चाई का पता न चल जाय।
सच्चाई यही है कि "मैं" कल्पना है,झूंठा कर्ता है,मिथ्या भोक्ता है।(अहंकारविमूढ)।
हां,जो अनुभव हो रहा है वह काल्पनिक नहीं है।यह जो होने का अनुभव है यही अनुसंधान है,यही लक्ष्य है।
जब यह सहज,स्वाभाविक हो जाता है स्थायी रुप से तब इसीको आत्मसाक्षात्कार कहा जाता है(सेल्फ रिएलाईजेशन)।
इस अस्तित्व अनुभव पर "मैं" शब्द का आवरण है।
मै कल्पित है।सबकी चेतनाएं इस कल्पित मैं (मेराभाव)से परिचालित हैं।
यह माया का बंधन है।जेहीं कीन्हें बस जीव निकाया।
चेतना,मैं मेरा के जाल में बंधी है।आदमी को चाहिये कि वह बिना मैं मेरा के जीना सीख ले।जैसे जैसे वह मैं मेरा शब्दों का प्रयोग करना छोडेगा वह अपने आप स्वस्थ होता चला जायेगा।यह स्वस्थता ही सही तरह से जीवन जीने की कला है।मैं मेरा का सोच नहीं है तो तूतेरा,वह उसका,वे उनका का भी सोच नहीं होगा।यह चेतना की स्वतंत्रता की शुरुआत है।
अभी लगता है चेतना,देह के पिंजरे में कैद है।
तो यह पिंजरा आया कहां से?देह तो नहीं करती मैं मैं,मेरा मेरा।देह तो प्रकृति निर्मित एक वस्तु की तरह है।
हम ही करते हैं मैं मैं,मेरा मेरा और मानते हैं हम देहपिंजरे में कैद हैं।लेकिन हम मैं मेरा की भाषा में सोचना बंद करें,शांत-मौन-स्वस्थ रहें तो कहां है पिंजरा?कोई पिंजरा नहीं है।पिंजरा खाली पडा हो उसके भीतर कोई न हो तो क्या अर्थ रह जाता है पिंजरे का?जैसे ही मैं मेरा,मैं मेरा इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया जाता है सदा स्वतंत्र रहनेवाली चेतना के चारों ओर अदृश्य पिंजरा निर्मित हो जाता है।चेतना उस पिंजरे से छूटने के लिये छटपटाती है परंतु मैं मेरा शब्दों का मोह नहीं छोडती।यही है जो करना है।बिना मैं मेरा शब्दों के रहें सहजता से,शांत- स्वभाव से।
मैं मेरा शब्दों का प्रयोग किया तो बकायदे माया के भ्रमजाल का कार्य चालू हो जाता है।
फिर तू तेरा है,वह उसका है,वे उनका है।आपस के झगडे हैं।किसीसे दोस्ती है,किसी से दुश्मनी है।लेकिन यह जीव ही है खुद अपना दोस्त या दुश्मन।और कोई दुश्मन नहीं है,दोस्त भी नहीं है।
मैं मेरा,तू तेरा जैसे मायिक शब्दों का परिचालन नहीं है तो सब अपने ही स्वरुप हैं।स्वरुप अखंड है,द्वैतरहित है इसलिए आनंदस्वरुप।
दूसरा है तो दुख है।दुख दूसरे से होता है लेकिन दूसरा है ही नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं तो दुख कैसा?सारा दारोमदार माया के मैं मेरा शब्दों के परिचालन पर है।हम परिचालित न हों।शांत मौन निशब्द रहने का अधिक से अधिक प्रयत्न करें।चारों ओर का कोलाहल सन्नाटे में,नीरवता में बदल जायेगा।इतनी आवाजें मन से आ रही थी।निशब्द होते ही मन अमन हो जाता है।शांति हो जाती है।सुखशांति उसीको कहा जाता है,न कि उसे जो द्वंद्वात्मक है जिसमें विपरीत की संभावना हमेशा मौजूद रहती है।
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