"एक अच्छा दिमाग और एक अच्छा दिल हमेशा से विजयी जोडी रहे हैं।"
* Jyotish Acharya Dr Umashankar Mishra 9415 087 711 923 5722 996*******
'यत्र योगेश्वर:कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं जहां धनुर्धर अर्जुन हैं वहीं पर श्री विजय विभूति और अचल नीति है ऐसा मेरा मत है।"
हर आदमी को क्या प्रिय है-
शक्ति, ऊर्जा, बल,सामर्थ्य या
शंका,आशंका,संदेह,संशय?
उत्तर सबका जाना हुआ है।किसीको शंकासंदेह प्रिय नहीं, सभी को शक्ति, ऊर्जा प्रिय हैं परंतु देखा क्या जाता है?आदमी न चाहते हुए भी शंकासंदेह का शिकार रहता है बल्कि उसका औचित्य-समर्थन भी करता है।एक दो ऐसे नकारात्मक आदमी हों तो खप सकते हैं जहां अधिकतम संख्या अविश्वासियों की हो वहां फिर व्यक्तिगत,सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सभी तरह की समस्याऐं उत्पन्न होती ही हैं।
आदमी चाहता शक्ति सामर्थ्य बल है,चाहने से कुछ होता नहीं।शंका, समर्थ नहीं बनने देती।
तो बीच का रास्ता चाहिए।
वह रास्ता है "विश्वास" का।विश्वास में रुपांतरित होने का।विश्वास विश्व की आस है,संशय विनाश है।
'संशयात्मा विनश्यति।'
वही अहंभाव, कर्ताभाव संशयमूर्छाग्रस्त।
जागरण की प्रक्रिया चाहिए, होश चाहिए।यह होश भी सीधे नहीं आता,विश्वास को अपनाना पडता है।विश्वास में रुपांतरण के बाद फिर कोई समस्या नहीं रहती।आदमी स्वयं विश्वास हो जाता है।इसे आत्मविश्वास कहा है।यह उस सिंह के समान है जो एक बार जग गया फिर कोई उसे पराभूत नहीं कर सकता।
आरंभ विश्वास के प्रयत्नों से ही हो सकता है।
तात्पर्य है विश्वास का ही मननचिंतन करें,विश्वास शब्द के अर्थ का गहराई से अनुभव करने की कोशिश करें।उसकी गहराई में डूबें।अपनी चेतना को विश्वास के ध्यान में लगायें।विश्वास ही खायेंपीयें,विश्वास ही पहने ओढें।श्वास लें तो मानो विश्वास की ऊर्जादायक ओक्सीजन भीतर जा रही है,संशयसंदेह की कार्बन डाइ ओक्साइड बाहर जा रही है।
यह प्रयत्न करना पडेगा।किये बिना होगा नहीं।फिर इसमें नुकसान भी कुछ नहीं है हालांकि शंका वृत्ति बलवान हो तो आदमी सोच सकता है कि हम विश्वास करेंगे तो हमारा शोषण हो सकता है।'
यहां ऐसे शंकालु विश्वास की बात नहीं हो रही, यहां उस विश्वास की बात हो रही है जो आत्मश्रद्धावान् है,जो समझयुक्त है।थोडी समझदारी से तो काम लेना पडेगा।अहंकारी बनकर शंकासंदेह का ही पोषण करते रहने में भला क्या बुद्धिमानी है।इसमें अपना ही नुकसान है।चाहे कोई कितना ही अहंकारी अभिमानी क्यों न हो,अपना नुकसान कोई नहीं चाहता।
सच्चे स्वार्थ की परिभाषा भी यही है बाकी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारनेवाला व्यक्ति तो मूर्ख है,वह स्वार्थी नहीं है।
स्व के अर्थ में,स्व के हित के प्रयोजन से कार्य करना तो सचमुच बडी बात है।
देखने में लगता है स्वार्थ के कारण लोग इतने दुखी हैं जबकि सच यह है कि वे स्वार्थ को जानते ही नहीं, जान लें तो वे कभी दुखी न हों,सदा सुखी रहने का प्रयत्न करें।विश्वास इस दिशा में उठाया गया एक सशक्त कदम है।
आदमी पूछता है-विश्वास किस पर करें?
तो यह गलत प्रश्न है।किसी पर करने की बात कहां हो रही है।विश्वास एक आंतरिक वृत्ति है जिसका अवलंबन करके स्वयं विश्वास बन जाना है।यह संशयवृत्ति का अभाव है।
समाज में दो तरह के लोग देखे जा सकते ह़ै-संशय से भरे हुए तथा विश्वास से भरे हुए।जो विश्वास से भरे हैं वे जहां भी जातें हैं ऊर्जा बिखेरते हैं,उनके आने से नयी आशा,नयी हिम्मत का संचार होता है।इसके विपरीत शंकासंदेह से भरे संशयचित्त लोग जहां भी जाते हैं वहां कुछ अच्छा हो रहा हो तो उस पर पानी फेर देते हैं इसलिए सदा विश्वास से भरे लोगों का ही संग करना चाहिए।
आपने डाक्टर भी देखे होंगे।कोई डाक्टर मरीज की चिंताग्रस्त स्थिति देखकर स्वयं संशययुक्त हो जाते हैं।कोई डाक्टर देखते ही नहीं नाजुक स्थिति को,उनकी पूर्ण आस्था, ऊर्जा,समझ,शक्ति, बल मरीज को पूर्ण स्वस्थ करने में समर्पित होते हैं।वे ठीक करके ही छोडते हैं।कोरोनायोद्धाओं की प्रशंसा ऐसे ही नहीं है।स्वयं सारे खतरे उठाकर मरीजों को पूर्ण स्वस्थ करने की जिम्मेदारी संभालना सचमुच बडी चुनौती की बात है।उन्हीकी वजह से परिस्थिति में सुधार आया है।अब पहले जैसा खतरा नहीं रहा।
विश्वास स्वयं में बडी इम्यूनिटी है।मेरा एक मित्र कोरोना का शिकार हुआ मगर उसने कोई परवाह नहीं की।उसमें दृढता और हिम्मत थी तो सहजता व शांति भी थी।वह उबरा उस बिमारी से।
हम बात कर रहे थे- शंकासंदेह, संशय,आशंका,कुशंका किसीको भी प्रिय नहीं है।प्रिय नहीं है तो सबसे पहले उनका औचित्य-समर्थन करना बंद करना चाहिए।जिस रास्ते जाना नहीं, उसकी बात क्यों?कहीं कहीं मैं लोगों को उनके नकारात्मक दृष्टिकोण के प्रति सचेत करता हूँ मगर वे नकारात्मकता को ही सकारात्मकता मान लेते हैं।ऐसे में उन्हें उनके आत्मघाती कदम से सावधान करना मुश्किल होता है।सोये को जगाना संभव है।जो वस्तुतः आंख बंद करके पडा है उसे कैसे जगायें, उसका हठ अभिमान आडे आता है।
माना कोई समस्या है तो समाधान क्यों नहीं करना चाहिए?अवश्य करना चाहिए लेकिन ऊर्जानाशक शंकासंदेह, अविश्वास से भरकर समाधान खोजने का क्या अर्थ है?शंका, शक्तिहीन बना देती है।इसके विपरीत शक्तिऊर्जाबलसामर्थ्यवर्धक विश्वास से भरकर समाधान खोजा जाय तो उसमें क्या बाधा है?सारी बाधाएं स्वयं में ही दूर हो जाती हैं।विश्वास वृत्ति का अवलंबन करके आदमी स्वयं आत्मविश्वास से युक्त हो जाता है।यह सही है कि मूलतः आत्मा का अवलंबन करने से ही आत्मविश्वास उत्पन्न होता है मगर संशययुक्त मनुष्य के लिये सीधा आत्मा पर-स्व पर आना मुश्किल है इसलिए उसके लिये मध्यम मार्ग है कि वह विश्वास वृत्ति का अवलंबन करे,
स्वेच्छा से संशय वृत्ति का न अवलंबन करे,न समर्थन।
"संशयात्मा विनश्यति।"
अतः अपनी भलाई अपने हाथ।कहीं जाने की जरूरत नहीं।अपने भीतर विश्वास जगाने की साधना करें।सब तरह की वृत्तियां हैं वहां विश्वास भी है त़़ो क्यों न उसका अवलंबन करके अपना हित किया जाय।इसमें दूसरों का भी हित है।ऐसा व्यक्ति जहां भी होता है वहां सभी निराशाओं के बादल छंट जाते हैं,नयी आशा का सूर्य उदित हो जाता है।
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