जन्म कुंडली में सुखी दांपत्य जीवन की स्थितियां :-
Jyotish Acharya Dr Umashankar Mishra
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विवाह के बाद कुछ समय तो गॄहस्थी की गाडी बढिया चलती रहती है किंतु कुछ समय के बाद ही पति पत्नि में कलह झगडे, अनबन शुरू होकर जीवन नारकीय बन जाता है. इन स्थितियों के लिये भी जन्मकुंडली में मौजूद कुछ योगायोग जिम्मेदार होते हैं. अत: विवाह तय करने के पहले कुंडली मिलान के समय ही इन योगायोगों पर अवश्य ही दॄष्टिपात कर लेना चाहिये.
सातवें भाव में खुद सप्तमेश स्वग्रही हो एवम उसके साथ किसी पाप ग्रह की युति अथवा दॄष्टि भी नही होनी चाहिये. लेकिन स्वग्रही सप्तमेश पर शनि मंगल या राहु में से किन्ही भी दो ग्रहों की संपूर्ण दॄष्टि संबंध या युति है तो इस स्थिति में दापंत्य सुख अति अल्प हो जायेगा. इस स्थिति के कारण सप्तम भाव एवम सप्तमेश दोनों ही पाप प्रभाव में आकर कमजोर हो जायेंगे.
यदि शुक्र के साथ लग्नेश, चतुर्थेश, नवमेश, दशमेश अथवा पंचमेश की युति हो तो दांपत्य सुख यानि यौन सुख में वॄद्धि होती है वहीं षष्ठेश, अष्टमेश अथवा द्वादशेश के साथ संबंध होने पर दांपत्य सुख में न्यूनता आती है.
यदि सप्तम अधिपति पर शुभ ग्रहों की दॄष्टि हो, सप्तमाधिपति से केंद्र में शुक्र संबंध बना रहा हो, चंद्र एवम शुक्र पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो दांपत्य जीवन अत्यंत सुखी और प्रेम पूर्ण होता है.
लग्नेश सप्तम भाव में विराजित हो और उस पर चतुर्थेश की शुभ दॄष्टि हो, एवम अन्य शुभ ग्रह भी सप्तम भाव में हों तो ऐसे जातक को अत्यंत सुंदर सुशील और गुणवान पत्नि मिलती है जिसके साथ उसका आजीवन सुंदर और सुखद दांपत्य जीवन व्यतीत होता है. (यह योग कन्या लग्न में घटित नही होगा)
सप्तमेश की केंद्र त्रिकोण में या एकादश भाव में स्थित हो तो ऐसे जोडों में परस्पर अत्यंत स्नेह रहता है. सप्तमेश एवम शुक्र दोनों उच्च राशि में, स्वराशि में हों और उन पर पाप प्रभाव ना हो तो दांपत्य जीवन अत्यंत सुखद होता है.
सप्तमेश बलवान होकर लग्नस्थ या सप्तमस्थ हो एवम शुक्र और चतुर्थेश भी साथ हों तो पति पत्नि अत्यंत प्रेम पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं.
सप्तमेश एवम शुक्र एक दूसरे की राशि में केंद्र या त्रिकोण में बैठे हों और उन पर द्वितीयेश और चतुर्थेश का दॄष्टि संबंध हो तो निहायत ही सुखद दांपत्य सुख प्राप्त होता है.
पुरूष की कुंडली में स्त्री सुख का कारक शुक्र होता है उसी तरह स्त्री की कुंडली में पति सुख का कारक ग्रह वॄहस्पति होता है. स्त्री की कुंडली में बलवान सप्तमेश होकर वॄहस्पति सप्तम भाव को देख रहा हो तो ऐसी स्त्री को अत्यंत उत्तम पति सुख प्राप्त होता है.
जिस स्त्री के द्वितीय, सप्तम, द्वादश भावों के अधिपति केंद्र या त्रिकोण में होकर वॄहस्पति से देखे जाते हों, सप्तमेश से द्वितीय, षष्ठ और एकादश स्थानों में सौम्य ग्रह बैठे हों, ऐसी स्त्री अत्यंत सुखी और पुत्रवान होकर सुखोपभोग करने वाली होती है.
पुरूष का सप्तमेश जिस राशि में बैठा हो वही राशि स्त्री की हो तो पति पत्नि में बहुत गहरा प्रेम रहता है.
वर कन्या का एक ही गण हो तथा वर्ग मैत्री भी हो तो उनमें असीम प्रम होता है. दोनों की एक ही राशि हो या राशि स्वामियों में मित्रता हो तो भी जीवन में प्रेम बना रहता है.
अगर वर या कन्या के सप्तम भाव में मंगल और शुक्र बैठे हों उनमे कामवासना का आवेग ज्यादा होगा अत: ऐसे वर कन्या के लिये ऐसे ही ग्रह स्थिति वाले जीवन साथी का चुनाव करना चाहिये. अगर ऐसे ग्रहों से युक्त वर कन्या का विवाह ऐसे जातक से कर दिया जाये जिसके सप्तम भाव में बुध या गुरू बैठे हों , जो कि काम वासना को कम करने वाले ग्रह हैं, तो इस स्थिति में इस युगल यौन विषय्क असमानता आ जाती है जिसके फ़लस्वरूप इनके जीवन में झगडे झंझट शुरू होकर दांपत्य सुख खत्म सा हो जाता है.
दांपत्य सुख का संबंध पति पत्नि दोनों से होता है. एक कुंडली में दंपत्य सुख हो और दूसरे की में नही हो तो उस अवस्था में भी दांपत्य सुख नही मिल पाता, अत: सगाई पूर्व माता पिता को निम्न स्थितियों पर ध्यान देते हुये किसी सुयोग्य और विद्वान ज्योतिषी से दोनों की जन्म कुंडलियों में स्वास्थ्य, आयु, चरित्र, स्वभाव, आर्थिक स्थिति, संतान पक्ष इत्यादि का समुचित अध्ययन करवा लेना चाहिये सिर्फ़ गुण मिलान से कुछ नही होता.
वर वधु की आयु का अधिक अंतर भी नही होना चाहिये, दोनों का शारीरिक ढांचा यानि लंबाई उंचाई, मोटाई, सुंदरता में भी साम्य देख लेना चाहिये. अक्सर कई धनी माता पिता अपनी काली कलूटी कन्या का विवाह धन का लालच देकर किसी सुंदर और गौरवर्ण लडके से कर देते हैं जो बाद में जाकर कलह का कारण बनता है. इसी तरह कई धनी पालक अपने काले कलूटे और कम पढे लिखे पुत्र के लिये सुंदर और गौरवर्ण पढी लिखी युवती से कर देते हैं और युवती के मां बाप भी यह सोचकर कि लडकी उंचे और धनी परिवार में जा रही है, उसकी शादी कर देते हैं, इस तरह के जोडे भी अक्सर दांपत्य सुख में कमी का शिकार होते हैं.
कुल मिलाकर शिक्षा, खानदान, खान पान परंपरा इत्यादि की साम्यता देखकर ही निर्णय लेना चाहिये. इस सबके अलावा वर कन्या के जन्म लग्न एवन जन्म राशि के तत्वों पर भी दॄष्टिपात कर लेना चाहिये. दोनों के लग्न, राशि के एक ही ततव हों और परस्पर मित्र भाव वाले हों तो भी पति पत्नि का जीवन प्रेम मय बना रहता है. इस मामले में विपरीत तत्वों का होना पति पत्नि में शत्रुता पैदा करता है यानि पति अग्नि तत्व का हो और पत्नि जल तत्व की हो तो गॄहस्थी की गाडी बहुत कष्ट दायक हो जाती है. कुल मिलाकर एक ही तत्व वाले जोडे अधिक सुखद दांपत्य जीवन जीते हैं..
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