आयुर्वेद का सिद्धांत है कि गरीबी दूर किये बिना विश्व का कोई व्यक्ति या समाज स्वस्थ और प्रसन्न नहीं रह सकता|
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बात कम से कम चार पांच हजार पहले की है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि बात 8000 साल पुरानी भी हो सकती है। उत्तर भारत के घने वनों में महर्षि-वैज्ञानिक भगवान् आत्रेय चिकित्सा-विज्ञान की कक्षा में पढ़ा रहे थे। उनके छः दिग्गज विद्यार्थी—जो आगे चलकर प्राचीन भारत के महान चिकित्सा-वैज्ञानिक बने—चिकित्सा के मूल सिद्धान्तों को समझने में व्यस्त थे।
"सुनो अग्निवेश! जीवन में आजीविका और धन प्राप्ति का प्रयास न करने से बड़ा कोई पाप नहीं|" भगवान् आत्रेय ने अपने एक शिष्य को संबोधित करते हुये कहा।
भगवान् आत्रेय ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये स्पष्ट किया (च.सू.11.5)— अथ द्वितीयां धनैषणामापद्येत, प्राणेभ्यो ह्यनन्तरं धनमेव पर्येष्टव्यं भवति; न ह्यतः पापात् पापीयोऽस्तियदनुपकरणस्य दीर्घमायुः, तस्मादुपकरणानि पर्येष्टुं यतेत। तत्रोपकरणोपायाननुव्याख्यास्यामः; तद्यथा कृषिपाशुपाल्यवाणिज्यराजोपसेवादीनि, यानि चान्यान्यपि सतामविगर्हितानि कर्माणि वृत्तिपुष्टिकराणि विद्यात्तान्यारभेत कर्तुं; तथा कुर्वन् दीर्घजीवितं जीवत्यनवमतः पुरुषो भवति। "प्राणों के बाद दूसरे क्रम पर धन की इच्छा आती है। जीवन में व्यक्ति को धन कमाने या आजीविका प्राप्त करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। पक्की तौर पर प्राणों के बाद धन ही महत्वपूर्ण है। निश्चय ही इससे बड़ा कोई पाप नहीं कि जिन्दगी भर स्वास्थ्य, सुख, धर्म और धन से विहीन जीवन हो। इसलिये धन प्राप्ति के उपाय करना आवश्यक है। इस हेतु जो उपकरण या साधन हैं उनमें खेती-बाड़ी, पशुपालन, वाणिज्य-व्यापार, सरकारी नौकरी या आजीविका को सुदृढ़ करने हेतु विद्वानों द्वारा सुझाये गये अन्य अच्छे कार्यों को प्रारंभ कर आजीविका तथा धन संपत्ति अर्जित करते हुये समाज में उचित सम्मान और प्रतिष्ठापूर्वक दीर्घ-जीवन जीना चाहिये।"
यह सुनकर आज हमें यह आश्चर्यजनक प्रतीत हो सकता है कि आयु के विज्ञान या चिकित्सा-विज्ञान से संबंधित शिक्षा-सत्र में भगवान् आत्रेय अचानक गरीबी, धनार्जन और संपत्ति जैसे विषय पर व्याख्यान क्यों दे रहे हैं। तथापि आपको यह जानकर और भी आश्चर्य हो सकता है कि आयुर्वेद की यह शिक्षा दरअसल अपने समय से बहुत आगे थी। आज विश्व के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शोध जर्नल्स में प्रकाशित शोध विश्लेषण निर्विवाद सिद्ध करता है कि जो लोग गरीबी में रहते हैं, वे मानसिक बीमारियों से प्रभावित रहते हैं [देखें, एम. रिडले इत्यादि, साइंस, 370(6522): 11 दिसम्बर, 2020]। गरीबी बौद्धिक और संज्ञानात्मक क्रियाओं और क्षमताओं को बिगाड़ती है। रुपये-पैसे की कमी के कारण गरीब की निर्णय-क्षमता दुष्प्रभावित होती है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि गरीबी व्यक्ति के दिमाग पर संज्ञानात्मक-बोझ डालती है। यह बोझ दिमाग को इतना चूस लेता है कि उन्नति पर ध्यान देने की क्रिया बाधित होती है, व्यक्ति प्रयास ही नहीं कर पाता और गरीबी और बीमारी के भंवर में फंसा रहता है [देखें, आनंदी मणि इत्यादि, साइंस, 341(6149): 976-980, 2013; एस.एल जेम्स इत्यादि, लैंसेट, 392(10159):1789-1858 2018; ई. रेनाही इत्यादि, यूरोपियन जर्नल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ, 28(2):269-275, 2018]।
गरीबी में जीवन-यापन करने वाले लोग मानसिक बीमारी से क्यों प्रभावित रहते हैं? इस विषय पर गरीबी और मानसिक बीमारियों जैसे अवसाद और चिंता आदि के बीच अंतर्निहित संबंध पर हुये अध्ययन रोचक हैं। अनुसंधान से पता चलता है कि एक तरफ गरीबी मानसिक बीमारी को बढ़ावा देती है और वहीं यह रोजगार के अवसरों तक पहुँच को कम करती है। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि गरीबों के जीवन में आय बढ़ाने के उपाय और मनोवैज्ञानिक चिकित्सकीय हस्तक्षेप दोनों मिलकर आर्थिक लाभ उत्पन्न करते हैं और स्वास्थ्य में बेहतरी लाते हैं। इसके उलट नकारात्मक आर्थिक झटके मानसिक बीमारी का कारण बनते हैं, और कैश ट्रांसफर जैसे एंटी-पावर्टी प्रोग्राम मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करते हैं। गरीबी, स्वास्थ्य और प्रसन्नता के मध्य इन पक्के रिश्तों की समझ प्रभावी नीतियों को विकसित और क्रियान्वित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
एक अन्य उदाहरण देखें तो आर्थिक रूप से वंचित लोग कोविड-19 के कारण मृत्यु की आशंका में सर्वाधिक फंसते हुये पाये गये हैं। यह जोखिम गरीबी के कारण तनाव, कोमोर्बिडिटी, और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच की कमी के कारण बढ़ता है। इस महामारी ने समाज में आर्थिक विषमताओं को उजागर तो किया ही है, इस विषमता को बढ़ाया भी है। यहाँ बेहतर स्वास्थ्य के लिये गरीबी दूर करने की आवश्यकता तो सिद्ध ही होती है। साथ ही, समाज में आर्थिक रूप से सर्वाधिक वंचित लोगों की कमजोरियों को दूर करने के लिये सामाजिक कल्याण में सुधार के लिये दीर्घकालिक कार्यक्रम क्रियान्वयन की अनिवार्यता भी सिद्ध होती है।
अब यह स्पष्ट रूप से ज्ञात है कि आय कम होने से मानसिक बीमारी बढ़ती है। फसलों के खराब होने से आमदनी के नकारात्मक झटके, कल-कारखाने बंद होने के कारण नौकरी का छूटना या आमदनी में गिरावट आदि मानसिक स्वास्थ्य को खराब करते हैं। इसके विपरीत अर्थशास्त्रीय क्लिनिकल ट्रायल्स में पाया गया है कि कैश ट्रांसफर और गरीबी हटाने के व्यापक प्रयास अवसाद और चिंता को कम करते हैं। जैसा कि स्वाभाविक है कि आमदनी और खर्च की अनिश्चितताओं से गरीबी का बड़ा रिश्ता है। अतः चिंता और अनिश्चितता मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ देती हैं। इसके विपरीत स्वास्थ्य, रोजगार, बीमा और आमदनी की कमी के झटकों से उबरने के अन्य साधन प्रदान करने से अवसाद और चिंता कम हो जाती और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। इसके अलावा गरीबी के कारण आवास की अपर्याप्त उपलब्धता, गरीबी वाले क्षेत्रों में प्रदूषण के कारण पर्यावरणीय तनाव, अपर्याप्त नींद आदि भी मानसिक बीमारी को बढ़ा देते हैं। बचपन में गरीबी की स्थिति, या यहाँ तक कि माता के गर्भाशय में अनुभव की जाने वाली गरीबी अंततः कुपोषण और अन्य तनावों की आशंका को बढ़ाती है। इन सबके कारण संज्ञानात्मक या बौद्धिक विकास गड़बड़ाने से वयस्क होते होते मानसिक बीमारी घेर लेती है। स्वाभाविक है कि गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों की देखभाल करने वाले सरकारी तंत्र को वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु तत्पर रहना आवश्यक है। एक बात यहाँ यह भी समझना चाहिये कि गरीबी बदतर शारीरिक स्वास्थ्य से भी जुड़ी है। गरीबी के कारण आघात, हिंसा और अपराध में लिप्त हो जाने का भारी जोखिम रहता है। गरीबी निम्न सामाजिक स्थिति के लिये भी उत्तरदायी है जिसके कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दुष्प्रभावित होता है।
असल में गरीबी के कारण उत्पन्न मानसिक बीमारियाँ भविष्य में आर्थिक उन्नयन के लिये किये जाने वाले प्रयत्नों के परिणामों को भी दुष्प्रभावित करती हैं। अवसाद और चिंता लोगों के सोचने-समझने के तरीके को प्रभावित करते हैं। परेशानी में ध्यान लगे रहने के कारण स्मृति में विकृति आती है। इस तरह के प्रभावों से आर्थिक प्राथमिकतायें किनारे हो जाती हैं। और इस प्रकार परेशानी में फंसे लोगों द्वारा लिये जाने वाले महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णय गलत होने लगते हैं। गरीबी के कारण एकाग्रता की कमी और अधिक काम की थकान उत्पादकता को गिरा देती है। गरीबी-जन्य मानसिक बीमारी एक ऐसे सामाजिक कलंक को लगा देती है जिसके कारण आगे व्यक्ति को श्रम-बाजार में तवज्जो नहीं मिलती। मानसिक बीमारी के साथ अगर अन्य गैर-संचारी रोगों जैसे मधुमेह और दिल की बीमारी आदि की को-मोर्बिडिटी भी है तो उस व्यक्ति के जीवन में भयावह स्वास्थ्य व्यय की आशंका को बढ़ जाती है। मानसिक बीमारी युवाओं में शिक्षा और कौशल प्राप्त करने की दिशा में भारी बाधा उत्पन्न कर सकती है। महिलाओं में मानसिक बीमारियों का असमान रूप से अधिक प्रसार लैंगिक असमानताओं को बढ़ा देता है। माता-पिता की मानसिक बीमारी बच्चों के संज्ञानात्मक विकास और शैक्षिक गतिविधि को प्रभावित कrती है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मानसिक बीमारी और गरीबी के भंवर में फंसा सकती है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि क्यों आयुर्वेद वैध तरीकों से धन कमाने की सलाह देता है।
आने वाले दशकों में मानसिक बीमारी का बोझ बढ़ने की आशंका है। हालांकि अमीर व्यक्तियों के मानसिक रूप से बीमार होने की संभावना कम होती है, लेकिन अमीर देशों में मानसिक बीमारी की दर कम नहीं हो रही है। कारण अनेक हैं। जलवायु परिवर्तन से मानसिक स्वास्थ्य खराब होने की आशंका, उच्च तापमान के दुष्प्रभाव से कृषि पैदावार में कमी या सूखा के कारण बारिश और पानी की आपूर्ति में परिवर्तन, मौसमी आपदाओं और हिंसक संघर्ष की आशंका बढ़ जाती है। गरीबी और मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य के संबंधों की इस भयावहता को देखते हुये ही आयुर्वेद धन कमाने और गरीबी दूर करने की सलाह देता है। इसीलिये आयुर्वेद में सुखायु और हितायु की ऐतिहासिक अवधारणा सर्वकालिक रूप से उपयोगी है।
सुखमायुः हितमायुः दोनों रणनीतियों को एक साथ आजीवन क्रियान्वित करना ही स्वास्थ्य और प्रसन्नता देता है क्योंकि स्वयं के लिये सुखकारी और समाज के लिये हितकारी जीवन जीने की साझा युक्ति सर्वोपरि है। इसीलिये सुखी व दुःखी और हितकारी व अहितकारी जीवन के लक्षणों का वर्णन आयुर्वेद में एक साथ आता है (च.सू.30.24): तत्र शारीरमानसाभ्यां रोगाभ्यामनभिद्रुतस्य विशेषेण यौवनवतः समर्थानुगतबलवीर्ययशःपौरुषपराक्रमस्यज्ञानविज्ञानेन्द्रियेन्द्रियार्थबलसमुदये वर्तमानस्य परमर्द्धिरुचिरविविधोपभोगस्य समृद्धसर्वारम्भस्य यथेष्टविचारिणःसुखमायुरुच्यते; असुखमतो विपर्ययेण; हितैषिणः पुनर्भूतानां परस्वादुपरतस्य सत्यवादिनः शमपरस्य परीक्ष्यकारिणोऽप्रमत्तस्य त्रिवर्गं परस्परेणानुपहतमुपसेवमानस्य पूजार्हसम्पूजकस्य ज्ञानविज्ञानोपशमशीलस्य वृद्धोपसेविनःसुनियतरागरोषेर्ष्यामदमानवेगस्य सततं विविधप्रदानपरस्य तपोज्ञानप्रशमनित्यस्याध्यात्मविदस्तत्परस्य लोकमिमं चामुंचावेक्षमाणस्य स्मृतिमतिमतो हितमायुरुच्यते; अहितमतो विपर्ययेण|| तात्पर्य यह कि यदि व्यक्ति (1) शारीरिक और मानसिक रोगों से मुक्त है, (2) विशेषकर युवावस्था में है, (3) सभी कार्य करने में समर्थ है, (4) बल, वीर्य, यश, पराक्रम, जानकारी और यथार्थ ज्ञान, कौशल युक्त हो, और पाँचों इंद्रियों और उनसे संबंधित विषयों के बल के समुच्चय से युक्त है, (5) उत्तम धन-सम्पदा वाला है और उपभोग हेतु सभी वस्तुओं से संपन्न है व इन सबके उपभोग में सक्षम है, (6) प्रारम्भ किये सभी कार्य पूर्ण हो रहे हों, (7) स्वयं की इच्छा अनुसार विचरण कर सकता हो या चल-फिर सकता हो, ऐसे व्यक्ति का जीवन सुखी जीवन होता है। और इस सबके उलट यदि इन सबका अभाव हो तो दुःखी जीवन होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति (1) सभी प्राणियों का हितचिंतक, (2) दूसरे का धन ना छीनने वाला, (3) सत्य बोलने वाला, (4) शांतिप्रिय, (5) कार्यों को सोच विचार कर क्रियान्वित करने वाला और सावधान, (6) अर्थ, धर्म, काम जैसे पुरुषार्थ का पालन करने वाला, (7) श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करने वाला, (8) ज्ञानशील, विज्ञानशील, शांतिशील, (9) बड़े-बूढ़ों की सेवा करने वाला, (10) राग, क्रोध, ईर्ष्या, मद, मान के वेगों पर उच्चकोटि का नियंत्रण रखने वाला, (11) निरंतर दानशील, (12) सदैव आत्म-नियंत्रण, ज्ञान, शांति, विनम्रता वाला, (13) आध्यात्म की समझ और पालन करने वाला, (14) लोक-परलोक का विचार करने वाला, स्मरण-शक्ति और बुद्धि से युक्त हो, ऐसे व्यक्ति की आयु हितकारी कही जाती है। इसके उलट अहितकारी कही जाती है| इन सभी कारकों को ध्यान से वर्गीकृत करने पर में सुखमायुः में स्वयं की उन्नति और हितमायुः में औरों की उन्नति और परोपकार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है|
इस विचार-विमर्श का मूल सन्देश क्या है? मूल सन्देश यह है कि आयुर्वेद की सलाह मानकर गरीबी दूर करने के सभी उचित प्रयत्न करना चाहिये| यही सुखदायी और हितकारी जीवन जीने का रास्ता है|
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