कैसे अवतरित हुई थी धरती पर ताप्ती नदी? यह कथा आपको हैरान कर देगी
यह देश की प्रमुख नदियों में से एक है। ताप्ती जन्मोत्सव आषाढ़ शुक्ल सप्तमी को मनाया जाता है। आइए पढ़ें पुराणों में ताप्तीजी की जन्म कथा :
ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्रा
ज्योतिषाचार्य आकांक्षा
श्रीवास्तव बताते है की
बैतूल जिले की मुलताई तहसील मुख्यालय के पास स्थित ताप्ती तालाब से निकलने वाली सूर्यपुत्री ताप्ती की जन्म कथा महाभारत में आदिपर्व पर उल्लेखित है। पुराणों में सूर्य भगवान की पुत्री तापी, जो ताप्ती कहलाईं, सूर्य भगवान के द्वारा उत्पन्न की गईं। ऐसा कहा जाता है कि भगवान सूर्य ने स्वयं की गर्मी या ताप से अपनी रक्षा करने के लिए ताप्ती को धरती पर अवतरित किया था।
भविष्य पुराण में ताप्ती महिमा के बारे में लिखा है कि सूर्य ने विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा/ संजना से विवाह किया था। संजना से उनकी 2 संतानें हुईं- कालिंदनी और यम। उस समय सूर्य अपने वर्तमान रूप में नहीं, वरन अंडाकार रूप में थे। संजना को सूर्य का ताप सहन नहीं हुआ, अत: वे अपने पति की परिचर्या अपनी दासी छाया को सौंपकर एक घोड़ी का रूप धारण कर मंदिर में तपस्या करने चली गईं।
छाया ने संजना का रूप धारण कर काफी समय तक सूर्य की सेवा की। सूर्य से छाया को शनिचर और ताप्ती नामक 2 संतानें हुईं। इसके अलावा सूर्य की 1 और पुत्री सावित्री भी थीं। सूर्य ने अपनी पुत्री को यह आशीर्वाद दिया था कि वह विनय पर्वत से पश्चिम दिशा की ओर बहेगी।
ताप्ती में भाई-बहनों के स्नान का महत्व
पुराणों में ताप्ती के विवाह की जानकारी पढ़ने को मिलती है। वायु पुराण में लिखा गया है कि कृत युग में चन्द्र वंश में ऋष्य नामक एक प्रतापी राजा राज्य करते थे। उनके एक सवरण को गुरु वशिष्ठ ने वेदों की शिक्षा दी। एक समय की बात है कि सवरण राजपाट का दायित्व गुरु वशिष्ठ के हाथों सौंपकर जंगल में तपस्या करने के लिए निकल गए।
वैभराज जंगल में सवरण ने एक सरोवर में कुछ अप्सराओं को स्नान करते हुए देखा जिनमें से एक ताप्ती भी थीं। ताप्ती को देखकर सवरण मोहित हो गया और सवरण ने आगे चलकर ताप्ती से विवाह कर लिया। सूर्यपुत्री ताप्ती को उसके भाई शनिचर (शनिदेव) ने यह आशीर्वाद दिया कि जो भी भाई-बहन यम चतुर्थी के दिन ताप्ती और यमुनाजी में स्नान करेगा, उनकी कभी भी अकाल मौत नहीं होगी।
प्रतिवर्ष कार्तिक माह में सूर्यपुत्री ताप्ती के किनारे बसे धार्मिक स्थलों पर मेला लगता है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु नर-नारी कार्तिक अमावस्या पर स्नान करने के लिए आते हैं।
महत्व : राजा दशरथ के शब्दभेदी से श्रवण कुमार की जल भरते समय अकाल मृत्यु हो गई थी। पुत्र की मौत से दुखी श्रवण कुमार के माता-पिता ने राजा दशरथ को श्राप दिया था कि उसकी भी मृत्यु पुत्रमोह में होगी। राम के वनवास के बाद राजा दशरथ भी पुत्रमोह में मृत्यु को प्राप्त कर गए लेकिन उन्हें जो हत्या का श्राप मिला था जिसके चलते उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकी।
ज्येष्ठ पुत्र के जीवित रहते अन्य पुत्र द्वारा किया गया अंतिम संस्कार एवं क्रियाकर्म भी शास्त्रों के अनुसार मान्य नहीं है। ऐसे में राजा दशरथ को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकी थी।
राजा दशरथ द्वारा ताप्ती महात्म्य की बताई गई कथा का भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम को ज्ञान था इसलिए उन्होंने सूर्यपुत्री देवकन्या मां आदिगंगा ताप्ती के तट पर अपने अनुज लक्ष्मण एवं माता सीता की उपस्थिति में अपने पितरों एवं अपने पिता का तर्पण कार्य ताप्ती नदी में किया था।
भगवान श्रीराम ने बारह लिंग नामक स्थान पर रुककर यहां पर भगवान विश्वकर्मा की मदद से 12 लिंगों की आकृति ताप्ती के तट पर स्थित चट्टानों पर उकेरकर उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की थी। बारहलिंग में आज भी ताप्ती स्नानागार जैसे कई ऐसे स्थान हैं, जो कि भगवान श्रीराम एवं माता सीता के यहां पर मौजूदगी के प्रमाण देते हैं।
एक अन्य कथा के अनुसार दुर्वासा ऋषि ने देवलघाट नामक स्थान पर बीच ताप्ती नदी में स्थित एक चट्टान के नीचे से बने सुरंग द्वार से स्वर्ग को प्रस्थान किया था।
शास्त्रों में कहा गया है कि यदि भूलवश या अनजाने से किसी भी मृत देह की हड्डी ताप्ती के जल में प्रवाहित हो जाती है तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है। जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नहीं होती, ठीक उसी प्रकार किसी भी अकाल मौत की शिकार बनी देह की अस्थियां ताप्ती जल में प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे ताप्ती जल में प्रवाहित किए जाने से अकाल मौत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है।
ताप्ती नदी के बहते जल में बिना किसी विधि-विधान के यदि कोई भी व्यक्ति अतृप्त आत्मा को आमंत्रित करके उसे अपने दोनों हाथों में जल लेकर उसकी शांति एवं तृप्ति का संकल्प लेकर यदि उसे बहते जल में प्रवाहित कर देता है तो मृत व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति मिल जाती है।
सबसे चमत्कारिक तथ्य यह है कि ताप्ती के पावन जल में 12 माह किसी भी मृत व्यक्ति का तर्पण कार्य संपादित किया जा सकता है। इस तर्पण कार्य को ताप्ती जन्मस्थली मुलताई में नि:शुल्क संपादित किया जाता है। ताप्ती नदी के जल में मुलताई से लेकर सूरत (गुजरात) तक कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म-जाति-संप्रदाय-वर्ग का अपने किसी भी परिजन या परिचित व्यक्ति की मृत आत्मा का तर्पण कार्य संपादित कर सकता है।
सूर्यपुत्री मां ताप्ती भारत की पश्चिम दिशा में बहने वाली प्रमुख 2 नदियों में से एक है। यह नाम ताप अर्थात ऊष्ण (गर्मी) से उत्पन्न हुआ है। वैसे भी ताप्ती ताप-पाप-श्राप और त्रास को हरने वाली आदिगंगा कही जाती है। स्वयं भगवान सूर्यनारायण ने स्वयं के ताप को कम करने के लिए ताप्ती को धरती पर भेजा था।
यह सतपुड़ा पठार पर स्थित मुलताई के तालाब से उत्पन्न हुई है लेकिन इसका मुख्य जलस्रोत मुलताई के उत्तर में 21 अक्षांश व 48 अक्षांश, पूर्व में 78 अक्षांश एवं 48 अक्षांश में स्थित 790 मीटर ऊंची पहाड़ी है जिसे प्राचीनकाल में ऋषि गिरि पर्वत कहा जाता था, जो बाद में 'नारद टेकड़ी' कहा जाने लगा।
इस स्थान पर स्वयं ऋषि नारद ने घोर तपस्या की थी। मुलताई का नारद कुंड वही स्थान है, जहां ताप्ती पुराण चोरी करने के बाद नारद को शारीरिक व्याधि हो गई थी, यहीं स्नान के बाद उन्हें कोढ़ से मुक्ति मिली थी।
ताप्ती नदी सतपुड़ा की पहाड़ियों एवं चिखलदरा की घाटियों को चीरती हुई महाखड्ड में बहती है। 201 किलोमीटर अपने मुख्य जलस्रोत से बहने के बाद ताप्ती पूर्वी निमाड़ में पहुंचती है। पूर्वी निमाड़ में भी 48 किलोमीटर संकरी घाटियों का सीना चीरती ताप्ती 242 किलोमीटर का संकरा रास्ता खानदेश का तय करने के बाद 129 किलोमीटर पहाड़ी जंगली रास्तों से कच्छ क्षेत्र में प्रवेश करती है।
लगभग 701 किलोमीटर लंबी ताप्ती नदी में सैकड़ों कुंड एवं जल प्रताप के साथ डोह है जिसे कि लंबी खाट में बुनी जाने वाली रस्सी को डालने के बाद भी नापा नहीं जा सका है। इस नदी पर यूं तो आज तक कोई भी बांध स्थायी रूप से टिक नहीं सका है। मुलताई के पास बना चंदोरा बांध इस बात का पर्याप्त आधार है कि कम जलधारा के बाद भी वह उसे 2 बार तहस-नहस कर चुकी है।
ताप्ती वैसे तो मात्र स्मरण मात्र से ही अपने भक्त पर मेहरबान हो जाती है लेकिन किसी ने उसके अस्तित्व को नकारने की कुचेष्टा की तो वे फिर शनिदेव की बहन हैं और कब किसकी साढ़े साती कर दे, कहा नहीं जा सकता। ताप्ती नदी के किनारे अनेक सभ्यताओं ने जन्म लिया और वे विलुप्त हो गईं।
भले ही आज ताप्ती घाटी की सभ्यता के पर्याप्त सबूत न मिल पाए हों लेकिन ताप्ती के तपबल को आज भी कोई नकारने की हिम्मत नहीं कर सका है। पुराणों में लिखा है कि भगवान जटाशंकर भोलेनाथ की जटा से निकली भगीरथी गंगा मैया में 100 बार स्नान का, देवाधिदेव महादेव के नेत्रों से निकली 1 बूंद से जन्मीं शिव पुत्री कही जाने वाली मां नर्मदा के दर्शन का तथा मां ताप्ती के नाम का एक समान पुण्य एवं लाभ है। वैसे तो जबसे से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है तबसे मूर्तिपूजक हिन्दू समाज नदियों को देवियों के रूप में सदियों से पूजता चला आ रहा है।
हमारे धार्मिक गंथों एवं वेद-पुराणों में भारत की पवित्र नदियों में ताप्ती एवं पूर्णा का भी उल्लेख मिलता है। सूर्य पुत्री ताप्ती अखंड भारत के केंद्रबिंदु कहे जाने वाले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के प्राचीन मुलतापी, जो कि वर्तमान में मुलताई कहा जाता है, नगर स्थित तालाब से निकलकर समीप के गौमुख से एक सूक्ष्म धार के रूप में बहती हुई गुजरात राज्य के सूरत के पास अरब सागर में समाहित हो जाती है।
सूर्यदेव की लाड़ली बेटी एवं शनिदेव की बहन ताप्ती, आदिगंगा के नाम से भी प्रख्यात है। आदिकाल से लेकर अनंत काल तक मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र एवं गुजरात के विभिन्न जिलों की पूज्य नदियों की तरह पूजी जाती रहेगी। सूर्यपुत्री ताप्ती मुक्ति का सबसे अच्छा माध्यम है।
सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि सूर्यपुत्री ताप्ती की सखी-सहेली कोई और न होकर चन्द्रदेव की पुत्री पूर्णा है, जो उसकी सहायक नदी के रूप में जानी-पहचानी जाती है। पूर्णा नदी भैंसदेही नगर के पश्चिम दिशा में स्थित काशी तालाब से निकलती है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु लोग अमावस्या और पूर्णिमा के समय इन नदियों में नहाकर पूर्ण लाभ कमाते हैं।
किंवदंती व कथाओं के अनुसार सूर्य और चंद्र दोनों ही आपस में एक-दूसरे के विरोधी रहे हैं तथा दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। ऐसे में दोनों की पुत्रियों का अनोखा मिलन आज भी लोगों की श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है।
*ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्रा
ज्योतिषाचार्य आकांक्षा
श्रीवास्तव*
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