*भोजन के संदर्भ में अधिकतर जानने योग्य तथ्यों का सकारण विवेचन -* ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्र सिद्धिविनायक ज्योतिष एवं वास्तु अनुसंधान केंद्र विभव खंड 2 गोमती नगर लखनऊ 94150 87711 923 5722 996 astroexpertsolutions.com भोजन से संबंधित आचारों के प्रमुखतः तीन भाग होते हैं; भोजनपूर्व आचार, भोजन के समय के आचार एवं भोजन के उपरांत के आचार । इन सर्व आचारों के संदर्भ में अधिकतर पुछेजानेवाले प्रश्न एवं उनका धर्मशास्त्रीय आधार प्रस्तुत लेख में दिया है । अन्नसेवन का शास्त्रीय आधार एक बार समझ में आने पर, घर पर ही नहीं, बाहर भी अन्न ग्रहण करने का समय आए, तब भी आचारों का पालन करने में किसी को लज्जा अनुभव नहीं होगी । *१. स्नान से पूर्व भोजन क्यों न करें ?* स्नान से देह पवित्र होती है । पवित्र होना अर्थात अंतर्बाह्य शुद्ध होना । नामजप सहित स्नान करने से देह की अंतर्बाह्य शुद्धि होती है । नामजप से आंतरिक शुद्धि होती है तथा स्नान से बाह्यशुद्धि साध्य होती है । स्नान से पूर्व देह रज-तम गुणों से मलिन रहती है । इस मलिनतासहित भोजन करना, अर्थात देह में राजस-तामस तरंगों के संक्रमण के लिए स्वयं ही निमित्त बनना । इस संक्रमण के प्रभाव से देह अनिष्ट शक्तियों से पीडित हो सकती है । इसलिए ऐसा कहा गया है कि स्नान से पूर्व मलिन देह सहित भोजन न करें । *२. पहले सेवन किया हुआ अन्न-पाचन होने पर ही भोजन क्यों करें ?* अ. पहले सेवन किया हुआ अन्न पचने पर ही, अर्थात क्षुधा (भूख) लगने पर, शुद्ध डकार आने पर, शरीर को हलका लगने पर भोजन करना चाहिए । इससे अजीर्णादि रोग नहीं होते तथा सप्तधातुओं की (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्रकी) समुचित वृद्धि होती है । आ. रात्रि-भोजन मध्याह्न-भोजन से हलका होना चाहिए । मध्याह्न का भोजन न पचा हो, तो रात्रि में हलका आहार लेने में कोई हानि नहीं; परंतु रात्रि का भोजन न पचने पर मध्याह्न-भोजन न करें । *३. सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण काल में भोजन न करें ।* अ. स्वास्थ्य की दृष्टि से- चंद्र एवं सूर्य अन्नरसों का पोषण करनेवाले देवता हैं । ग्रहणकाल में उनकी शक्ति अल्प हो जाती है । इस कारण शास्त्रों में इस काल में भोजन करना वर्जित है । आ. आध्यात्मिक दृष्टि से- आधुनिक विज्ञान ‘ग्रहण’का विचार केवल स्थूल स्तर पर, अर्थात भौगोलिक स्तर पर ही करता है; परंतु हमारे ऋषि-मुनियों ने ‘ग्रहण’का सूक्ष्म (अर्थात आध्यात्मिक स्तरपर होनेवाले) दुष्परिणामों का भी विचार किया है । ग्रहणकाल में वायुमंडल रज-तमात्मक (कष्टप्रद) तरंगों से दूषित होता है । उस काल में वायुमंडल में रोगाणु तथा अनिष्ट शक्तियों का प्रभाव भी बढा हुआ होता है । उस काल में भोजन, शयन इत्यादि राजस-तामस कृत्यों के माध्यम से हमें अनिष्ट शक्तियों की पीडा हो सकती है । धर्मशास्त्र कहता है, ‘ग्रहणकाल में भोजन करने से पित्त का कष्ट होता है ।’ इसके विपरीत, ग्रहणकाल में नामजप, स्तोत्रपाठ समान धार्मिक कृत्य, अर्थात साधना करने पर हमारे सर्व ओर सुरक्षा-कवच निर्मित होता है तथा ग्रहण के अनिष्ट प्रभाव से हमारी रक्षा होती है । ध्यान रखिए ! एकमात्र हिन्दू धर्म ही यह बताता है, ‘स्थूल वैज्ञानिक क्रियाकलापों के मूल में भी सूक्ष्म अध्यात्मशास्त्र है । *४. भोजन के कितने घंटे पश्चात पुनः भोजन करें ?* मध्याह्न में गरिष्ठ (पचने में भारी) भोजन हुआ हो, तो उस रात्रि भोजन न करें । साधारणतः वयस्क लोग भोजन के उपरांत न्यूनतम (कम से कम) तीन घंटे कुछ ग्रहण न करें तथा परिश्रमी लोग ६ घंटे से अधिक समयतक क्षुधातुर (खाली पेट) न रहें । *५. भोजन-पूर्व पैर धोकर गीले पैर भोजन क्यों करें ?* *अ.* पैर धोने से पैरों में लगी धूल में विद्यमान रज-तम कण नष्ट होते हैं । धूल के कणों के माध्यम से प्रक्षेपित रज-तमात्मक तरंगें जीव के सर्व ओर गतिशील वायुमंडल बनाती हैं, इससे जीव को कष्ट हो सकता है । देह पर स्थित रज-तमात्मक तरंगों का पैर धोने से कोष नष्ट हो जाता है । पैर धोने से जल की आपतत्त्वात्मक तरंगों के कारण जीव का प्राणमयकोष कार्यरत होता है । इस कारण प्रार्थना कर अन्नसेवन करते समय देह की ब्रह्मांडस्थित सात्त्विक तरंगें ग्रहण करने की क्षमता बढती है । आपतत्त्वकी सहायता से ये सात्त्विक तरंगें प्रवाही बनकर शरीर की प्रत्येक कोशिका में गहराईतक अवशोषित होने में तथा मनोमयकोष में संचारित होने में सहायता मिलती है । इस कारण, भोजन करते समय मन में आनेवाले अनावश्यक रज-तमात्मक विचार न्यून होकर सात्त्विकता के परिणामस्वरूप अन्नपाचन उत्तम होकर शरीर निरोगी बनता है । *आ.* ‘गीलापन’ अर्थात शुचिता । जल का स्पर्श शुद्धि करनेवाला है । शुचिता, अर्थात शुद्धता अथवा पवित्रता । गीले पैर भोजन करना अर्थात पूर्णतः शुद्ध (पवित्र) देह एवं मन से अन्न-सेवनरूपी यज्ञकर्म संपन्न करना । जल के स्पर्श से देह की संवेदनशीलता बढ जाने से प्रसादरूपी अन्न ग्रहण करते समय मिलनेवाली चैतन्ययुक्त तरंगों का संपूर्ण शरीर में अल्प अवधि में वेगपूर्वक प्रक्षेपण संभव होता है । साथ ही इन तरंगों का देह के सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनने में सहायता मिलती है । परिणामस्वरूप अन्न-सेवन प्रक्रिया में होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से जीव की रक्षा होने में सहायता मिलती है । *६.* भोजन के लिए काष्ठ के (लकडी के) पीढे पर क्यों बैठना चाहिए ? भूमि पर बैठकर भोजन करने पर भूमि से प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगें शरीर में प्रविष्ट होना; किंतु पीढे पर बैठकर भोजन करने से वैसा न होना : भूमि पर बैठकर भोजन करते समय देह भूमि से संलग्न होती है । इसलिए भूमि से प्रक्षेपित कष्टदायक ऊध्र्वगामी तरंगें पैर की उंगलियों से देह में प्रवेश करती हैं । इन कष्टदायक तरंगों के कारण भोजन करते समय अस्वस्थ लगना, भोजन करने की इच्छा ही न होना, भोजन करते समय हाथ-पैरों में चींटियां आना आदि कष्ट होते हैं । भूगर्भ तरंगें जडत्वदर्शक होती हैं । अतः इन तरंगों के कारण शरीर सुन्न होना, शरीर भारी लगना जैसे कष्ट भी होते हैं । इसी प्रकार इन कष्टदायक स्पंदनों के माध्यम से शरीर में अनिष्ट शक्तियों के प्रवेश की आशंका बढ जाती है । काष्ठ के (लकडी के) पीढे में सूक्ष्म मात्रा में तेजतत्त्वात्मक तरंगों का भ्रमण जारी रहता है । इन तरंगों के संचारण से निर्मित तप्त ऊर्जा द्वारा भूमि से ऊपर उठनेवाली कष्टदायक तरंगें अवरुद्ध की जाती हैं तथा उनमें विद्यमान रज-तमात्मक कणों का वातावरण में ही विघटन किया जाता है । फलतः जीव पर इन तरंगों का प्रभाव नहीं पडता । पीढे में कष्टदायक तरंगों को प्रतिबंधित करने के साथ ही सात्त्विक तरंगों को धारण करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए भोजन के लिए बैठते समय काष्ठके पीढे का उपयोग श्रेयस्कर है । *७.* जिस पात्र में भोजन बनाया गया है, उसमें (मूल पात्र में) भोजन क्यों नही करना चाहिए ? कोई पदार्थ जिस पात्र में बनाया जाता है, उसी में सेवन नहीं करना चाहिए, थाली एवं कटोरी में लेकर ही ग्रहण करना चाहिए । मूल पात्र में भोजन करने से पूर्ण पात्र ही जीव की वासना-तरंगों के संपर्क में आता है । इस से उसके दूषित होने की आशं का होती है । इस प्रकार दूषित हो चुके पात्र में बनाया हुआ अन्न भी दूषित होता है । अन्न की इस दूषित अवस्था का लाभ उठाकर अनिष्ट शक्तियां अन्न में काली शक्ति का संचार कर सकती हैं । इसलिए मूल पात्र में से भोजन न करें । *८. भोजनपात्र के रूप में उपयोग किए जानेवाले पात्र अथवा पत्ते कैसे होने चाहिए ?* ‘पवित्र पात्रों में से अन्न-सेवन करने से भोजन करनेवाले व्यक्ति का मन प्रसन्न रहता है, अन्न शीघ्र पचता है एवं रोग नहीं होते ।’ *अ.* ‘गुणवत्ता की दृष्टि से भोजन पकाने एवं खाने हेतु सोने-चांदी की थालियां एवं पकाने के पात्र उत्तम, जबकि पीतल की थाली एवं पात्र मध्यम हैं । (स्टील की थाली एवं पात्र सब से कनिष्ठ हैं ।) *आ.* भोजन करने के लिए उपयोग में लाए जानेवाले पत्तों में कमल, महुआ, जामुन, कटहल, आम, चंपा, गूलर एवं केले के पत्ते उत्तम हैं । मदार, बरगद (बड) एवं अश्वत्थ के (पीपल के) पत्ते भोजन करने हेतु निषिद्ध हैं । *९.* भोजन की थाली जांघ पर रखकर भोजन क्यों नहीं करना चाहिए ? *१.* अन्न ‘पूर्णब्रह्म’ है । इसलिए उसे देवत्व का ही सम्मान प्रदान करना चाहिए । जांघ पर अन्न की थाली रखकर अन्न ग्रहण करना, अन्न में निहित देवत्व का अनादर करने समान है । इससे अन्नब्रह्म की सात्त्विकता का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता । *२.* थाली को जांघ पर रखकर अन्न ग्रहण करने से जीव के शरीर का अन्न से संपर्क अधिक होकर जीव के अंतर्मन में निहित वासनात्मक विचारों के अनुरूप प्रक्षेपित तरंगें अन्न के माध्यम से उसके शरीर में प्रसारित होती हैं । इस प्रक्रिया के कारण जीव अपने ही रज-तमात्मक तरंगों से युक्त कोष में अन्न रखकर उसे ग्रहण करता रहता है । इस कारण अन्न से मिलनेवाली भूमितरंगों के लाभ से वह वंचित रहता है । *३.* पैरों के स्पर्श के माध्यम से पाताल से आनेवाले कष्टदायक स्पंदन अधिकतर घुटने की रिक्ति में अपना स्थान बनाते हैं । जांघ पर थाली रखकर अन्न ग्रहण करने से स्पर्श के माध्यम से पैर, घुटनों एवं जांघों में ये सुप्त स्पंदन कार्यरत होकर अन्न को अपवित्र कर सकते हैं; अतः भोजन की थाली जांघ पर रखकर भोजन न करें । *१०. भोजनकर्ता अनुपस्थित हो, तो उसकी थाली पहले से ही परोसकर क्यों नहीं रखनी चाहिए ?* परोसी हुई थाली में विद्यमान अन्न की गंध एवं आप-तरंगों के आकर्षण के कारण किसी अनिष्ट शक्ति की वासना जागृत होने से वह उस स्थान पर अन्न-सेवन के लिए आ सकती है । अतः अनुपस्थित भोजनकर्ता के लिए थाली परोसकर न रखें । व्यक्ति की उपस्थिति में उनके लिए भोजन की थाली परोसने पर अन्न से प्रक्षेपित गंध एवं आपतत्त्वात्मक तरंगों का प्रक्षेपण ऊध्र्व दिशा में अत्यल्प होने के कारण अनिष्ट शक्ति की वासना जागृत होना असंभव ही होना यदि व्यक्ति उपस्थित हो, तो क्या अन्नसे गंध एवं आप-तरंगोंका प्रक्षेपण नहीं होता ? क्या व्यक्ति भोजनके लिए प्रत्यक्ष पीढेपर बैठा हो, तो भी अनिष्ट शक्ति वहां आकृष्ट हो सकती है ? व्यक्तिका पीढेपर बैठना, अर्थात प्रत्यक्ष कर्तात्मक स्वरूपद्वारा भोग भोगने हेतु निर्मित रूप । इस कारण अन्नसे प्रक्षेपित गंध एवं आप-तत्त्वात्मक तरंगोंका प्रक्षेपण ऊध्र्व दिशामें अधिक न होकर, जीवकी प्रत्यक्ष वासनात्मकताके बलपर निर्मित भोगासक्त कृत्यकी ओर होता है । इसलिए थालीमें परोसे अन्नसे प्रक्षेपित गंध एवं आप-तत्त्वात्मक तरंगें अत्यल्प मात्रामें ऊध्र्व दिशामें जाती हैं । ये तरंगें इतनी अल्प मात्रामें होती हैं कि किसी अनिष्ट शक्तिकी वासना जागृत होना लगभग असंभव होता है । कभी-कभी व्यक्तिको कष्ट देनेके उद्देश्यसे बडी अनिष्ट शक्तियां अन्नके माध्यमसे व्यक्तिकी ओर आकृष्ट होती हैं । हिन्दू संस्कृतिके अनुसार थालीके सर्व ओर जलके मंडलसे आप-तत्त्वामक कवच बनाकर भोजन ग्रहण करनेवाले व्यक्तिको पछाडना अथवा उसपर नियंत्रण पाना अनिष्ट शक्तियोंके लिए, अन्य व्यक्तिकी तुलनामें २० प्रतिशत अधिक कठिन होता है । *११. भोजन से पूर्व थाली के सर्व ओर जल से मंडल क्यों बनाते है (जल घुमाना) ?* अपने इष्टदेवता से प्रार्थना कर भोजन की थाली के चारों ओर जल का मंडल बनाना, अर्थात उनकी आशीर्वादरूपी कार्यरत तरंगें उस मंडल में घनीभूत करना । जल सर्वसमावेशक है, इसलिए जीव द्वारा भावपूर्ण प्रार्थना कर बनाए मंडल के आकार में संबंधित देवता के स्पंदन अल्पावधि में आकर्षित होकर, भोजन पर अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण न हो सके, इसके लिए एक प्रकार से सूक्ष्म सुरक्षा-कवच ही बनाते हैं । इससे भोजन की प्रक्रिया रज-तममुक्त बनती है । *१२. भोजन की थाली के पास जल छोडना एवं ग्रास थाली के बाहर क्यों रखते है ?* कुछ लोग भोजन प्रारंभ करने से पूर्व हाथ में जल लेकर वह भोजन की थाली के पास छोडते हैं, तो कुछ लोग भोजन के एक अथवा पांच ग्रास थाली के बाहर दाहिनी ओर रखते हैं । ऋणपूर्ति का उद्देश्य : थाली के पास जल छोडने अथवा ग्रास थाली के बाहर निकालकर रखने का मूल उद्देश्य यह है कि हम पर जिनके ऋण हैं, उन्हें वह चुकाना । व्यक्ति पर देव, ऋषि, पितर एवं समाज का ऋण होता है तथा प्रत्येक को वह चुकाना ही पडता है । उसीके एक अंश के रूप में कुछ लोग भोजन से पूर्व थाली के पास जल छोडते हैं । कुछ लोग एक अथवा पांच ग्रास थाली के बाहर निकालकर रखते हैं । भोज्यपदार्थ का एक अथवा कुछ ग्रास थाली के बाहर रखने से भोजन प्रक्रिया में अतृप्त आत्माओं की पीडा की आशं का अल्प हो जाना भोज्यपदार्थ का एक अथवा कुछ ग्रास थाली के बाहर रखना, अपने पितरों को अथवा वायुमंडल में विद्यमान वासना की अभिलाषा से आई आत्माओं को उतारास्वरूप प्रक्रिया से तृप्त करने का माध्यम है । उन्हें अन्न के माध्यम से संतुष्ट करने से आगे भोजन प्रक्रिया में अतृप्त आत्माओं से पीडा होने की आशंका अल्प हो जाती है; इसलिए भोजन की थाली के दाहिनी ओर ग्रास निकालकर रखने की प्रथा है । इससे यही ध्यानमें आता है कि हिन्दू धर्म में प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक कर्मरूपी आचार संहिता द्वारा रज-तम मुक्ति साध्य की गई है । *११.भोज्यपदार्थ परोसनेके लिए प्रयुक्त चम्मचका भोजनकी थाली अथवा उस थालीमें परोसे खाद्यपदार्थोंसे स्पर्श क्यों नहीं होने देना चाहिए ?* वर्तमानमें भोजन में तले एवं तीखे पदार्थोंकी मात्रा अधिक होनेके कारण अधिकांश पदार्थ रज-तम गुणी होते हैं । परोसनेवाला जीव भी सामान्यतः रज-तम गुणी ही होता है तथा उसके हाथका चम्मच भी रज-तम तरंगोंसे युक्त होता है । ऐसे चम्मचका स्पर्श थाली अथवा थालीके पदार्थसे होनेपर, चम्मचकी प्रवाही तरंगोंके कारण पदार्थकी रज-तमात्मक शक्ति जागृत होकर भोजनकी थालीके सर्व ओर इन तरंगोंका मंडल बन जाता है । उसी प्रकार कष्टदायक नाद उत्पन्न करनेवाली इस क्रियाके कारण पाताल एवं वास्तुके कष्टदायक स्पंदन कार्यरत होकर कालांतरमें इन तरंगोंका वातावरणमें प्रक्षेपण आरंभ होता है । इससे घरमें अनिष्ट शक्तियोंका संचार भी बढ जाता है; इसलिए भोज्यपदार्थ परोसनेके चम्मचका भोजनकी थालीसे अथवा थालीमें परोसे पदार्थसे स्पर्श न होने दें । *१२. थाली के अन्य पदार्थ सेवन करने का क्रम क्या होना चाहिए ?* *अद्यात् द्रव्यं गुरु स्निग्धं स्वादु शीतं स्थिरं पुरः ।* *विपरीतमतश्चान्ते मध्येऽम्ललवणोत्कटम् ।। अर्थ : भोजन के प्रारंभ में पित्त प्रबल होता है । उसका शमन होने के लिए ठोस, स्निग्ध, मीठे, शीतल एवं गाढे पदार्थ प्रथम खाने चाहिए । भोजन के अंत में कफ प्रबल होता है । इसलिए उस समय तीखे एवं कडवे पदार्थ ग्रहण करने चाहिए । भोजन के मध्य में खट्टे एवं नमकीन पदार्थ ग्रहण करने चाहिए । *१३. आहार के उपरांत तत्काल निद्राधीन क्यों नही होना चहिए ?* नींद की मुद्रा तमोगुणी है, इसलिए आहार के उपरांत तत्काल निद्राधीन होने से देह में तमोगुण का संचार बढकर अन्नपाचन प्रक्रिया में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न होती हैं । परिणामस्वरूप रज-तमात्मक सूक्ष्म तरंगों की संभाव्य निर्मिति स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध होती है । इन तरंगों के प्रभाव में सोने की मुद्रा द्वारा पाताल में कार्यरत अनेक वासनाजन्य शक्तियां इस काल में जीव पर आक्रमण कर सकती हैं । ऐसा कहते हैं कि आहार के एक-दो घंटे के उपरांत ही निद्राधीन हों । अर्थात स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक अन्नस्वरूपी पोषण प्रक्रिया में निद्रा से निर्मित तमोगुण के कारण बाधा उत्पन्न नहीं होती । *१४. रात्रि में जूठे पात्रों में (बरतनों में) अन्नकण न छोडें* रात्रि में अनिष्ट शक्तियों का संचार अधिक रहता है । इसलिए जूठे पात्रों में शेष अन्नकणों की ओर अधिक वासनायुक्त लिंगदेह आकृष्ट होती हैं । इन वासनात्मक लिंगदेहों का घर में संचार बढने से इन लिंगदेहों से प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनों का परिणाम होकर घर के व्यक्तियों को मिचली होना, अपचन, थाली में भोजन छोडकर उठ जाने का मन करना, भोजन की रुचि ही समाप्त हो जाना इत्यादि कष्ट होने की आशंका अधिक होती है; इसलिए जूठे पात्रमें से जूठन घर के बाहर केले के पत्ते पर रखकर वह अन्न पशुओं को (गाय-भैंस को) खिला देना चाहिए सिद्धिविनायक ज्योतिष एवं वास्तु अनुसंधान केंद्र वेदराज कांप्लेक्स पुराना आरटीओ चौराहा लाटूश रोड लखनऊastroexpertsolutions.com 9235 722 996