➰।।हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे ।।➰
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-👉:शब्द-शक्ति और मन्त्र-विज्ञान:------- भाग--1
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👉 क्या हमने कभी कल्पना की है कि संसार के करीब तीन अरब लोगों में आधे लोग रात में जब सोते रहते हैं तब आधी आबादी दिन के प्रकाश में अपने कार्य में व्यस्त रहती है। यदि वे डेड़ अरब मनुष्य दिन के अपने जागरण-काल में केवल तीन घंटे भी बातें करते हैं तो क्या हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि ये कितनी शक्ति इस प्रकार उत्पन्न करते हैं ? विद्युतीय ध्वनिशास्त्र तथा इंजीनियरिंग के द्वारा गणना करके यदि देखा जाय तो लोग केवल तीन घण्टों में 6000 खरब वाट विद्युत् शक्ति केवल बोल- बोल कर उत्पन्न करते हैं। शब्दों से उत्पन्न यह विद्युत् ऊर्जा दामोदर नदी घाटी, रिहन्द बांध, भाखड़ा नांगल बांध और परमाणु सयन्त्रों की सम्मिलित शक्ति से कहीं अधिक है। इस ऊर्जा से सम्पूर्ण विश्व में घण्टों प्रकाश किया जा सकता और उस ऊर्जा की एक यूनिट का मूल्य मात्र 50 पैसा भी रखा जाय तो इतनी बिजली का मूल्य लगभग अरबों-खरबों रुपये होगा। कल्पना कीजिये कि इतनी बिजली और इतना रुपया मनुष्य केवल होंठ हिलाकर हवा में फूँक मार कर उड़ा देता है।
👉जिस स्थान पर तामसिक मन और बिचार वाले लोगों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, उनके मुख से निकलने वाले शब्द भी ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध, लोभ, वासना आदि से भरे हुए होते हैं। वातावरण में पहले घनीभूत होने के बाद उन शब्दों में उत्पन्न ऊर्जा 'ईथर' में पहुँचती है जिसे ग्रहण कर प्रकृति कृत्याओं (दैवीय आपदाओं) को जन्म देती है। वे कृत्याएं उस स्थान पर, देश पर नाना प्रकार के संघर्ष, युद्ध, रक्तपात, आदि कराने लग जाती हैं जिससे भयंकर जन-धन हानि होती है। सूखा, अकाल, बाढ़, अतिवृष्टि, महामारी इन्हीं कृत्याओं की देन है जिनसे आज का अज्ञानी मनुष्य अनभिज्ञ है। आचार-विचार, यज्ञ-याग आदि से वातावरण की शुद्धता होती है--जिसकी महत्ता हमारे ऋषि-मुनि समझते थे और वे एक प्रकार से समाज, संसार के वातावरण की शुद्धि करते रहते थे।
👉 वैज्ञानिक डॉक्टर बोएड ने एक ऐसा विचित्र यंत्र बनाया था कि जिसके सामने यदि हम बोलने के लिए अपना मुंह तक खोलें तो उसमें उठने वाली तरंगें और कम्पन स्पष्ट देखे जा सकते थे। उस यंत्र के सामने कोई ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे तो यंत्र में लगे कांच के सामान, लट्टू टूट-टूट कर चूर हो कर बिखर जाते थे।
👉 इसी प्रकार उच्चारित शब्दों और ध्वनि का प्रभाव हमारे तन-मन पर भी पड़ता है। यह प्रभाव विशेष रूप से हमारे कानों और त्वचा के द्वारा पड़ता है क्योंकि कानों और त्वचा की संवेदनशीलता लगभग एक-सी होती है। शब्दों के लिए कानों की संवेदनशीलता सर्वाधिक होती है। कान सूक्ष्म विद्युत्गृह का काम भी करते हैं। मोटे तौर पर यह समझा जा सकता है कि कान एक प्रकार का माइक्रोफोन होता है। इसकी विशेषता यह होती है कि 20 से 20000 हज़ार की फ्रीक्वेंसी के सुनाई पड़ने योग्य कोई शब्द कान में पड़ते ही विद्युत् धारा प्रवाहित होने लगती है तथा वह सीधे मस्तिष्क तक पहुँचती है। फिर उसके बाद नाना प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया को जन्म देती हुई शरीर के सभी अंगों व ग्रंथियों को सक्रिय एवं विद्युत्युक्त बना देती है। त्वचा पर पहले ध्वनि-चाप का असर पड़ता है, फिर स्नायुतन्तुओं में बिजली का संचार होता है और मस्तिष्क के स्नायुतन्तुओं में भी अल्प मात्रा में बिजली का संचार करती है। शब्दों का सबसे अधिक प्रभाव कानों के स्नायु, अन्य स्नायु, मस्तिष्क, ह्रदय, अन्तःस्रावी ग्रंथियों, पेट, गुर्दे, लीवर, खून और ऑटोनोमिक स्नायु पर पड़ता है।
👉 जिस समय हम शब्दों का उच्चारण करते हैं, उस समय सुनने वाले के मस्तिष्क पर दो प्रकार का प्रभाव पड़ता है।
👉1--मुख से शब्द निकलने के पहले वक्ता के मस्तिष्क से उसी प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें निकलती हैं जिन्हें श्रोता का मस्तिष्क ग्रहण करने की चेष्टा करता है।
👉2--उच्चारित शब्द वायु के माध्यम से हमारे कानों के छेदों से होते हुए विद्युत् संचार के रूप में मस्तिष्क में पहुँचते हैं और हर्ष, शोक, विषाद, घृणा, क्रोध, भय, वासना आदि के आवेगों को मस्तिष्क में उत्पन्न करते हैं और उन्हीं के अनुरूप शरीर के अंगों में स्फुरण, संदीपन, उत्तेजना आदि की क्रियाएँ होने लग जाती हैं। इस प्रकार शब्द प्रेरणा, स्फुरण, स्फूर्ति, उत्तेजना, संवेदना आदि उतपन्न कर प्रायः शरीर के अंगों में साधारण अवस्था से अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देते हैं। कभी-कभी शिथिलता, निष्क्रियता, जड़ता, आदि भी पैदा कर देते हैं।
👉 स्नायुमण्डल पर शब्दों के विविध प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। व्याकुलता, शरीर की क्लान्ति, कम्पन, चित्त की चंचलता, बुरे भयानक स्वप्न। उन प्रभावों की स्पष्ट विकृतियां होती हैं। मूर्च्छा, स्मृतिभ्रम, विक्षिप्तता का भी आक्रमण हो सकता है। शब्दों में काम, क्रोध, भय आदि उत्पन्न होने पर हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। इससे ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। खून में विशेष प्रकार का विष (टाक्सिन) उत्पन्न होने लगता है। इसी प्रकार ख़ुशी देने वाला, आशा प्रदान करने वाला शब्द मस्तिष्क, हृदय और खून पर अमृत जैसा काम करता है। प्रिय और अप्रिय शब्दों के अनुसार पेट में भी प्रतिक्रियाएं होती हैं। उनसे भूख और पाचन-क्रिया बढ़ या घट जाती है। इन्हीं सब बातों के द्वारा प्रश्न तथा बातों के माध्यम से उत्तेजित कर अपराधों का पता लगाने के लिए 'लाई डिटेक्टर' यंत्र का आविष्कार किया गया है। प्रश्नों और शब्दों की बौछार से अपराधी के शरीर के अंगों में होने वाली क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को विद्युत्-धारा ग्रहण कर रहस्य का बहुत कुछ पता लगाया जा सकता है।
👉 क्रोध, घृणा, भयानक शब्दों को सुनकर मनुष्य के उपवृक्क (एड्रीनल ग्लैण्ड) से एक तीव्र स्राव निकलकर उसके रक्त में मिलने लग जाता है जिसे एड्रिनल स्राव कहते हैं। उसके निकलते समय यकृत, लिवर से एक विशेष प्रकार की चीनी (ग्लाईकोजिन) स्वयं निःसृत होने लग जाती है जिससे मूत्रमेह या मधुमेह जैसी भयानक बीमारी हो जाती है।
👉 मन्त्रविज्ञान में शब्दों की इन्हीं सब प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर कल्याण, मनोकामना सिद्धि, उच्चाटन, शत्रु-मारण, विद्वेषण, मोहन, वशीकरण आदि के लिए विविध शब्द-प्रक्रियाओं का विधान किया गया है जिन्हें 'मन्त्र' कहते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मन्त्र-शक्ति और मन्त्र-विज्ञान का यही मूलाधार है।
👉 पशु-पक्षी और पेड़-पौधों में सभी में बिजली होती है। वे हमारे शब्दों, ध्वनियों से अत्यन्त सूक्ष्म रूप से प्रभावित होते हैं। हम-आपने प्रायः देखा होगा--फसलों की बुआई, गुड़ाई के समय किसानों की स्त्रियां गाती रहती हैं। वैज्ञानकों के अनुसार संगीत के प्रभाव से पैदावार बढ़ती है।इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने एक विशेष प्रयोग किया था। विद्यालय की सभी कक्षाओं के सामने अशोक आदि के वृक्ष लगाये गए थे। उसी प्रकार से संगीत शाला के कक्ष के सामने भी वे ही वृक्ष लगाये गए। सबका समान पालन-पोषण हुआ। लेकिन दो-तीन वर्षों में ही संगीत कक्ष के सामने के पौधों की वृद्धिदर अन्य कक्षों की तुलना में अधिक रही। इससे यही सिद्ध होता है कि शब्दों और ध्वनियों का चमत्कारिक प्रभाव सजीव और निर्जीव पदार्थो पर पड़ता है जो शब्द-शक्ति या ध्वनि-शक्ति की विद्युत् के कारण होता है।
👉अध्यात्म-भूमि की ओर--
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👉मायारूपी प्रकृति की भूमि में ईश्वर की अद्भुत और रहस्यमयी शक्तियां क्रियाशील हैं। भिन्न-भिन्न देवता उन्हीं शक्तियों के प्रतीकमात्र हैं। यदि यह कहा जाय कि एक ही मूल शक्ति भिन्न-भिन्न भावों और रूपों में क्रियाशील है तो अतिशयोक्ति न होगी। उन विभिन्न शक्तियों से संपर्क स्थापित कर उनसे भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में प्रचुर सहायता लेकर उसे स्वस्थ, समृद्ध और सुख-साधन संपन्न बनाने का एकमात्र माध्यम मन्त्र-यंत्र-तंत्र की सहायता से प्रकट होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है।
👉अगोचर जगत में रात-दिन क्रियाशील शक्ति के प्रतीक देवताओं की अपनी सीमा और कार्य-सम्पादन क्षेत्र है। ये अपनी सीमा के प्रवर्तक और अधिष्ठाता हैं। जिस प्रकार रेडियो स्टेशन से ध्वनि तरंगें और दूरदर्शन केंद्रों से ध्वनि और प्रकाश तरंगें बिना यंत्रों के प्रकट नहीं होतीं, उसी प्रकार से दैवीय जगत की क्रियाशील शक्तियां भी हमारे चारों ओर बिखरी हुई हैं जिनका प्राकट्य उपासना तथा विविधि साधनाओं के माध्यम से साधक के स्थूल शरीर में या इष्ट प्रतिमा में होता है।
👉 प्राकट्य के पांच माध्यम हैं--
1--👉सूक्ष्म दैवीय शक्ति के साधक की काया में प्रकट होने का नाम 'चिन्मय सृष्टि' है।
2--👉 इसी प्रकार प्रतिमा में आत्मबल और संकल्प शक्ति के माध्यम से दैवीय शक्ति को आरोपित करने की कला को 'पीठ सृष्टि' कहते हैं। इसके कई भेद हैं। पीठ का निर्माण प्रतिमा के आलावा किसी योग्य स्थान विशेष में, शव में, बालक में और नारी में किया जाता है।
3--👉 तीसरी प्रकार की सृष्टि शुद्ध, पवित्र आत्मा वाले मनुष्य में होती है जिसे 'आवेश' कहते हैं। उस आवेश के माध्यम से देवता का प्राकट्य होता है।
4--👉 चौथे और पांचवें प्रकार के माध्यम 'मन्त्र' और 'यंत्र' भी हैं। मन्त्र का विधिवत् जप करने से सूक्ष्म दैवीय शक्तियों से साधक का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। फलतः उसके मानस-पटल पर मन्त्र के माध्यम से उस देवता की सृष्टि अथवा प्रकटीकरण होता है। इसे मानसिक सृष्टि भी कहते हैं।
👉चिन्मय सृष्टि और मानसिक सृष्टि में केवल इतना ही अन्तर समझना चाहिए कि चिन्मय सृष्टि ह्रदय में और मानसिक सृष्टि मस्तिष्क या मनोभूमि में होती है।
5-👉 यंत्र में शक्ति के आविर्भाव की कला कुछ भिन्न है। यह 'पीठ विज्ञान' के अंतर्गत है। इसकी रचना प्रचुर इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के ऊपर निर्भर है। इसके अभाव के कारण ही यंत्र असफल होते हैं।
👉 मन्त्र में वर्ण संयोजन है और यंत्र में अंक और बीजाक्षर दोनों का संयोजन है। जैसा कि हमें ज्ञात होना चाहिए कि शब्द और अंक भासमान या प्रकाशवान हैं। शब्द और अंक दोनों समान प्रकाशमय हैं। एक शब्द में जितने वर्ण होते हैं, वे सब प्रकाश को प्रकट करते हैं। मगर उनका प्रकाश एक-सा नहीं है--भिन्न भिन्न वर्णों का होता है। यहाँ वर्णों का आशय रंगों से है। वर्ण (अक्षर)को वर्ण की इसीलिए संज्ञा दी गयी है उसमें वर्ण (रंग)होते हैं। एक शब्द अपने वर्णों के सामूहिक प्रकाश को व्यक्त करता है। वह प्रकाश विभिन्न रंगों का एक पुञ्ज समान होता है। अंकों में भी यही बात समझी जा सकती है। वर्णों की तरह अंकों की भी संख्या है। एक से नौ तक की संख्या मूल संख्या है। इसके बाद शून्य है। यह एकाकी अवस्था में व्यर्थ है। किन्तु जब 1 से 9 की संख्या के साथ जुड़ता है तो उसके भीतर वह दस गुनी शक्ति बढ़ा देता है। किसी भी अंक का प्रकाश शून्य के योग से दस गुना अधिक हो जाता है। प्रकाश का आविर्भाव कम्पन से और कम्पन का जन्म ध्वनि से होता है। इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक शब्द और अंक प्रकाशमय, कम्पनमय और ध्वनिमय हैं।( संकलित)
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