।➰।हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे ।➰।
👉तीन प्रकार के सम्बन्ध:-(बुद्धि,हृदय तथा नाभि परक)
-➖➖ jyotishacharya Dr Umashankar Mishra➖➖ 9415 087711➖
👉 मनुष्य के जीवन में तीन प्रकार के सम्बन्ध होते हैं।
1--👉बुद्धि के सम्बन्ध जो बहुत गहरे नहीं होते, शीघ्र टूट जाते हैं। गुरु और शिष्य में ऐसे ही सम्बन्ध होते हैं।
2-- 👉प्रेम के सम्बन्ध जो बुद्धि से अधिक गहरे होते हैं। ह्रदय के सम्बन्ध माता-पुत्र में, भाई-भाई में और पति-पत्नी में इसी प्रकार के सम्बन्ध होते हैं जो ह्रदय से उठते हैं।
3--👉इन सबसे अधिक गहरे सम्बन्ध होते हैं जो नाभि से उठते हैं। नाभि से उठने वाले सम्बन्ध को हम मित्रता या मैत्री कहते हैं।
👉मैत्री प्रेम से भी अधिक गहरी होती है। प्रेम कभी टूट सकता है लेकिन मैत्री किसी भी स्थिति में टूट नहीं सकती।
👉आज जिसे हम प्रेम करते हैं, कल उससे घृणा भी कर सकते हैं। लेकिन जो मित्र(सच्चा मित्र) है, वह कभी शत्रु नहीं हो सकता। मित्रता का सम्बन्ध नाभि से है।
👉 इसलिए भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों से यह कभी नहीं कहा कि प्रेम करो। उन्होंने सदैव यही कहा कि मैत्री करो। बुद्ध ने कहा--हमारे जीवन में मैत्री होनी चाहिए।
👉मैत्री प्रेम से भी अधिक गहरी है। प्रेम भंग हो सकता है लेकिन मैत्री नहीं। प्रेम बांधता है, लेकिन मैत्री मुक्त करती है। यदि मित्रता किसी भी प्रकार टूट भी जाय तो समझो वह मित्रता नहीं थी। मित्र शत्रु बन जाय तो यह समझा जायेगा कि शत्रुता पहले से ही छिपी थी मित्रता के पीछे।
👉 मित्रता का सम्बन्ध नाभि से है जो गहरे लोक से सम्बंधित है। इसलिए बुद्ध ने कहा--मैत्री।
👉 प्रेम इसलिए बांधता है क्योंकि उसमें प्रेमियों का आग्रह होता है।
👉एक व्यक्ति के हज़ारों मित्र हो सकते हैं क्योंकि मित्रता बड़ी गहरी और व्यापक अनुभूति है। जीवन के सबसे गहरे केंद्र से वह उत्पन्न होती है। इसलिए मित्रता अन्त में परमात्मा की ओर ले जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण मार्ग बन जाती है।
👉प्रेमी का अनुरोध होता है कि जिससे वह प्रेम करता है उससे फिर और कोई प्रेम न करे। केवल वही करे, दूसरा नहीं। लेकिन मित्रता करने वालों की भावना ऐसी नहीं होती। उनकी तो भावना होती है--सम्पूर्ण मानव जाति से मित्रता। उनका कोई शत्रु नहीं, कोई पराया नहीं। सभी मित्र हैं, सभी अपने हैं। मित्रता में यही उदात्त भावना होती है जिसके अनुसार पूरा विश्व एक परिवार की तरह है--"वसुधैव कुटुम्बकम्।" मित्रता की यही परम पवित्र भावना एक-न-एक दिन विश्वनाभि से उसका सम्बन्ध जोड़ देती है।
👉विश्वनाभि से तात्पर्य है--समूचे विश्व में ब्रह्माण्ड की नाभि जिसे वेद में जगत परमात्मास्वरूप विष्णु की नाभि कहा गया है जिससे ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है। यह विश्वनाभि परम शून्य स्थान है, वह सम्पूर्ण विश्वब्रह्मांड का केंद्र-बिन्दु है। उसमें व्याप्त परम शून्य शिव स्वरूप है और है--परमेश्वरी।
👉 विश्वनाभि में प्रवेश हो जाने पर वहां से बाहर निकलना असम्भव है और इसी अवस्था को कहते हैं--'ब्रह्माण्ड मुक्ति' या 'परम मोक्ष'।
👉मनुष्य के शरीरों में एक शरीर है--कॉस्मिक बॉडी जिसे ब्रह्माण्ड काया या ब्रह्म शरीर भी कहते हैं। इस काया के द्वारा विश्वनाभि से साधक का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। सम्बन्ध स्थापित होने के बाद की जो स्थिति है, वह है विश्वनाभि में प्रवेश की स्थिति। जिस काया द्वारा साधक प्रवेश करता है, वह है निर्वाण काया--bodiless existenc,
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