धर्मानुमोदित विवाह सप्तपदी Jyotishacharya . Dr Umashankar mishr--9415087711--9235722996 विवाह में प्रत्येक अंग की अपनी विशेषता होती है पर सप्तपदी की ख्याति सर्वाधिक है।इस विवाहांग में पति अपनी पत्नी को सखी बनने को कहता है।इसी मन्त्र के कारण इसे सप्तपदी कहते हैं--- सखा सप्तपदी भव। सख्यन्ते गमेयम्। सख्यंते मा जोषा:।सख्यंते मायोष्ठ्या:। अर्थ---""" हे कन्ये! तुम मेरी सखी बनो।अर्थात् सप्तपदी ( सहचारिणी ) बनो।मैं तुम्हारा सखा बनना चाह रहा हूँ।मेरी और तुम्हारी मैत्री को अन्य कोई स्त्री विच्छिन्न नहीं कर सकती।अन्य सुख कारिणी स्त्रियाँ तुम्हारे साथ मैत्री कर सकती हैं। """ प्राचीन ग्रन्थों में सप्तपदी को सह चारिणी कहा गया है।स्मृतियोंमें सख्य (सखाभाव),मैत्री और सप्तपदी एक अर्थ में स्वीकृत है-- मैत्री सप्तपदीति च।इस आशय के साथ पति वधू को सात पग उत्तर दिशा की ओर चलने को कहता है। इस संदर्भ में निर्देश है कि कन्या सातों बार हमेशा दाहिना पैर आगे बढ़ाती है।फिर बायें पैर को आगे लाती है।सातों बार दाहिना पैर ही आगे बढ़ता है। आजकल लोग मण्डप में कन्या को खड़ा करा कर केवल एकजगह खड़े खड़े दाहिना पैर हिलवा देते हैं।कोरम पूरा। सप्तपदी के सात पद प्रक्षेप( आगे बढ़ना )-- वर बोलता है और वधू एक पग आगे बढ़ाती है - १- एक मिषे ------- विष्णुस्त्वा नयतु । - २- द्वे ऊर्जे -------- " " " " । - ३ - त्रीणि रायष्पोषाय --- " " " " । --४ - चत्वारि मायोभवाय---- " " " " । - ५ -- पंच पशुभ्यः ------ " " " " । - ६ - षड् ऋतुभ्यो ------- " " " " । - ७ -सखे सप्तपदा भव सा मामनुव्रता भव " । ( गोभिलगृह्यसूत्र में षड् ऋतु की जगह "व्रताय" कहा गया है जिसका अर्थ है समस्त वैदिक कर्म का पालन।पारस्कर के अनुसार षड ऋतु का अर्थ है-- ऋतुकर्म जैसे वसन्त में वैदिक यज्ञ, ग्रीष्म में जल-अन्न- छत्र-उपानह आदि का दान कर्म।वैसे ही शिशिर में कल्पवास आदि कर्म।) ऊपर के सप्तपदी का अर्थ देखें--* तुम्हारा प्रथम पग ईष (अन्न) के लिए बढ़े,विष्णु तुम्हारा उन्नयन करें।तुम्हारे आने के बाद हमारी गृहस्थी में धन-धान्य की कमी न हो। * दूसरा पग ऊर्जा (बल, प्राण) के लिए बढ़े,विष्णु तुम्हारा उन्नयन करें। * तीसरा पग धन वृद्धि के लिए बढ़े, विष्णु तुम्हारा उन्नयन करें। * चतुर्थ पग सुख वृद्धि के लिये बढ़े, विष्णु तुम्हारा उन्नयन करें। * पंचम पग पशुधन वृद्धि के लिए बढ़े,विष्णु तुम्हारा उन्नयन करें।षष्ठ पग ६ ऋतुओं की अनुकूलता के लिए बढ़े ,विष्णु तुम्हारा उन्नयन करें। * सप्तम पग मैत्री के लिए बढ़े।तुम मेरी सप्तपदा (सखी) बनो। मेरी अनुवर्तिनी बनो। अंतिम मन्त्र का " सप्तपदा भव " का अर्थ है ----भूलोक,भुवःलोक, स्वर्गलोक, मह: लोक, जन:लोक, तप:लोक,सत्यलोक तक मेरे साथ रहो। अनेक विवाह पद्धतिकारों ने सौ वर्षों के भीतर वैदिक पद्धति में पौराणिक मन्त्रों को जोड़ कर विस्तार कर दिया है जैसे गाथा गान में एक ही मन्त्र को तीन बार दुहराना और सप्तपदी में पौराणिक मन्त्रों को भर देना। कन्यादान के समय संकल्प बोलते समय गोत्रोच्चार के समय अनावश्यक वैदिक एवं पौराणिक मन्त्रों को अति विस्तार के साथ गाना।जबकि उस समय संकल्प का विस्तार न करके केवल तीन पीढ़ियों के पूर्वजों को दोनों पक्षों की ओर से स्मरण करते हुए स्मरण करना होता है। अभिषेक सप्तपदी के बाद पारस्कर के अनुसार अग्नि के दक्षिण में स्थित कलश जल से पल्लव द्वारा वर कन्या का अभिषेक करता है।यहां चार मन्त्रों का प्रयोग होता है।अनेक जगह पण्डित जी ही कलश जल से कन्या का अभिषेक कर देते हैं जो सर्वथा निंदनीय है।यह अधिकार केवल वर का है।अभिषेक का मन्त्र निम्नवत् है -- १- आपः शिवा: शिवतमा: शान्ता:शान्ततमा: तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ।। -- २ - आपो हिष्ठा मयो भुवः ता न् ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे । -- ३ - यो व: शिवतमो रसः तस्य भाजयते हन:। उशती रिव मातर: । -- ४ -- तस्मा अरंग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जन यथा च नः । जल चिकित्सा के ये मन्त्र अत्यन्त दिव्य हैं।विवाह के आरम्भ में ही कहा है कि गम्भीर जल वाले स्रोत से कलश को पूर्ण किया जाता है और उसे एक दृढ़ पुरुष कंधे पर लेकर खड़ा रहता है अथवा अग्नि के दक्षिण या उत्तर में स्थापित करता है। सूर्य दर्शन वर वधू को सूर्य को देखने के लिए कहता है और - - तच्चक्षु: देवहितं पुरस्तात् आदि मन्त्र को वर पढ़ता है। इस मन्त्र में "सौ वर्षों तक देखते,सुनते,बोलते हुए जीनेकी कामना की गई है।" पारस्कर गृह्यसूत्र में ध्रुव दर्शन का भी विधान है।अतः शुक्ल यजुर्वेदिओं को दिन में ही विवाह का विधान है। ध्रुव दर्शन बाद में भाष्यकार कर्क आचार्य, हरिहर आचार्य,गदाधर आचार्य आदि ने ध्रुव दर्शन का विधान किया है। जब भी रात्रि में विवाह होगा वर वधू को ध्रुव नक्षत्र देखने के लिए कहेगा ही।टीकाकार गदाधर लिखते हैं - ध्रुव दिखे या न दिखे वधू कहे- पश्यामि । देख रही हूँ। हृदय स्पर्श - वर वधू के दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाते हुए उसके हृदय का स्पर्श करता है और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एक मन्त्र को बोलता है-- मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियनक्तु मह्यम् । अर्थ- तुम्हारे हृदय को अपने व्रत में धारण करता हूँ।मेरे चित्त के अनुकूल तुम्हारा चित्त हो।मेरी वाणी को एक मन से श्रवण करो उसका अनुगमन करो।प्रजापति तुझे मेरे लिए नियोजित करे। सिन्दूर दान -वर सिन्दूर द्वारा कन्या को अभिमन्त्रित करताहै अर्थात् उसकी मांग में सिन्दूर को भरता है।सिंदूर भरने का मन्त्र निम्नवत् है -- सुमंगलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत । सौभाग्यमस्यै दत्वा याथाsस्तं विपरेत न ।। अर्थ-- हे विवाह देवता! यह वधू सुमङ्गल स्वरूपा है।इस वधू को मङ्गल दृष्टि से देखिये।इसे सौभाग्य देकर आप देवगण घर जायें। पुनः आने के लिए जायें।( इसके पुत्रादिकों को मङ्गल के समय आशीर्वाद देने के लिए आप सभी पुनः आयें। आजकल के पद्धतिकारों ने "" याथ "" जाने अर्थ को बदल कर " यथा " कर दिया है जो गलत है। पद्धतिकार लिखते हैं चार सौभाग्यवती महिलायें सिन्दूर दान के समय मङ्गल गीत गाये एवं वर की वायीं ओर वधू को करके सिंदूर को सुव्यवस्थित करें।इसे लोक में सिंदूर बहोरना कहते हैं।फैले सिन्दूर को सुव्यवस्थित करना। लोकाचार के अनुसार मण्डप में स्थित सभी लोग अभिषेक मन्त्रों के साथ वर वधू पर आशीर्वाद स्वरूप लाजा छिड़कते हैं।यहां से वर वधू गुप्तागर जिसे कोहबर कहते हैं वहां जाते हैं।